भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के / अहमद महफूज़

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:47, 21 मार्च 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अहमद महफूज़ }} {{KKCatGhazal}} <poem> ये जो धुआँ ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के आस-पास
क्या कोई आग बुझ गई सरहद-ए-जाँ के आस-पास

शोर-ए-हवा-ए-शाम-ए-ग़म यूँ तो कहाँ कहाँ नहीं
सुनिए तो बस सुनाई दे दर्द-ए-निहाँ के आस-पास

बुझ गए क्या चराग़ सब ऐ दिल-ए-आफ़ियत-तलब
कब से भटक रहे हैं हम कू-ए-ज़ियाँ के आस-पास

उन को तलाश कीजिए हम तो मिलेंगे आप ही
अपनी भी जा-ए-बाश है गुम-शुदगाँ के आस-पास

सीना-ए-शब को चीर कर देखो तो क्या समाँ है अब
मंज़िल-ए-दिल के सामने कूचा-ए-जाँ के आस-पास

वो भी अजब सवार था आया इधर उधर गया
पहुँची न मेरी ख़ाक भी उस की इनाँ के आस-पास

आलम-ए-सर्द-ओ-गर्म की क्या हो भला उन्हें ख़बर
वो जो रहे हैं उम्र भर शोला-रुख़ाँ के आस-पास