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ये जो मेरे सामने / अनीता सिंह

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ये जो मेरे सामने
आकर खड़े है
ये महज़ कुछ पल
नहीं है
है यही प्रतिबिम्ब,
कल के नये-
अंदाज़ के

झड़ रहे हैं, शुष्क पीले, जीर्ण पत्ते
कल इसी में, नई कोंपलें, मुस्कुरायेंगी
चटककर कलियाँ, दिवा का द्वार खोलेंगी
गंध फूलों से निकलकर, फ़ैल जायेंगी।
आनेवाला कल प्रतीक्षित सुन रहा है
स्वर उठे जो, आज के आगाज़ के

जब रवि की रश्मियां हैं, दग्ध करतीं
सूखती जाती हैं नदियाँ, ताप से
है बड़ा उत्सर्ग ये, कल के लिये
बन रहा होता है बादल, भाप से।
लटपटाते, फड़फड़ाते, पंख ही
साक्षी बनेंगे
कल के नये, परवाज़ के

सोखतीं हैं कन्दराएँ, जब नमी को
संग्रहण में गुजरती हैं, कई सदियाँ
छटपटाती क्रोड में, मुक्ति को आतुर
फूट पड़ती हैं, धवल उद्दाम नदियाँ
सप्तसुर को, साधने की
कोशिशों में
बिखरते सुर ही
पहचान होंगे
इक नई
आवाज़ के