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ये बे-सिबात बहार-ए-रियाज़-ए-हस्ती है / फ़कीर मोहम्मद 'गोया'

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ये बे-सिबात बहार-ए-रियाज़-ए-हस्ती है
कली जो चटकी तो हस्ती पर अपनी हंसती है

क्या है चाक गिरेबान रोज़-ए-महशर तक
ये अपने जोश-ए-जुनूँ की दराज़-दस्ती है

बस एक तौबा पे आती है मग़फिरत तेरे हाथ
ख़रीद कर के निहायत ये जिंस सस्ती है

असीर कर के हमें खुश न होजियाँ सय्याद
के तू भी याँ तो गिरफ़्तार-ए-दाम-ए-हस्ती है

चे ख़ुश बवद के बर आएद ब-यक करिश्‍मा दोकार
सनम बग़ल में है दिल महव-ए-हक़-परस्ती है

है ख़ूब पहले से ‘गोया’ करूँ मैं तर्क-ए-सुख़न
के एक दम में ये ख़ामोश शम्मा-ए-हस्ती है