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ये भी सोचा है क्या आपने दिलरुबा बाग़ कैसा लगेगा हमारे बिना / कांतिमोहन 'सोज़'

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ये भी सोचा है क्या आपने दिलरुबा बाग़ कैसा लगेगा हमारे बिना ।
नंगे-हस्ती थे हम ये तो माना मगर क्या जहां में बचेगा हमारे बिना ।।

आपको भा गई बुलबुलों की सदा मख़मली घास पर मोतियों की क़बा
खाद बनता है लेकिन हमारा लहू फूल कैसे खिलेगा हमारे बिना ।

हाँ चमन से हमें बेदखल कीजिए अपने सुख का तो कोई जतन कीजिए
कैसे बहलेगा दिल जो हर एक शाख़ से एक शोला उठेगा हमारे बिना ।

वक़्ते-रुख़्सत ख़ता बख्शवाते चलें एक छोटा-सा हक़ था जताते चलें
कौन बाक़ी बचा अब जो हर वार पर यूँ मुक़र्रर कहेगा हमारे बिना ।

सोज़ इसने कलेजे को छलनी किया फिर भी लख़्ते-जिगर था ये इब्ने-बला
आय है सूरते-ग़म पे रोना हमें किसके कांधे चढ़ेगा हमारे बिना ।।

7 जून 1987