भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा / दुष्यंत कुमार

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:59, 4 सितम्बर 2008 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा

मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा


यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ

मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा


ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते

वो सब के सब परीशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा


तुम्हारे शहर में ये शोर सुन—सुन कर तो लगता है

कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा


कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उसके बारे में

वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं ऐसा ,ऐसा हुआ होगा


यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बसते हैं

ख़ुदा जाने वहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा


चलो, अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें

कम—अज—कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा


* अपने मित्र के.पी शुंगलु को समर्पित जिन्होंने मतले का विचार दिया

फ़ाका = भोजन ना मिलने पर भूखे रहने की स्तिथि ; जलसा = उत्सव