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यों अन्धेरा अभी पी रहा हूँ / शंभुनाथ सिंह

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 यों अन्धेरा अभी पी रहा हूँ,
        रोशनी के लिए जी रहा हूँ ।

एक अन्धे कुएँ में पड़ा हूँ
पाँव पर किन्तु अपने खड़ा हूँ,
कह रहा मन कि क़द से कुएँ के
मैं यक़ीनन बहुत ही बड़ा हूँ ।
        
        मौत के बाहुओं में बँधा भी
        ज़िन्दगी के लिए जी रहा हूँ ।

ख़ौफ़ की एक दुनिया यहाँ है,
क़ैद की काँपती-सी हवा है,
सरसराहट भरी सनसनी का
ख़त्म होता नहीं सिलसिला है ।

        साँप औ' बिच्छुओं से घिरा भी
        आदमी के लिए जी रहा हूँ ।

तेज़ बदबू, सड़न और मैं हूँ,
हर तरफ़ है घुटन और मैं हूँ ।
हड्डियों, पसलियों, चीथड़ों का
सर्द वातावरण और मैं हूँ ।

        यों अकेला नरक भोगता भी
        मैं सभी के लिए जी रहा हूँ ।

सिर उठा धूल मैं झाड़ता हूँ
और जाले तने फाड़ता हूँ,
फिर दरारों भरे इस कुएँ में
दर्द की खूँटियाँ गाड़ता हूँ ।

        चाँद के झूठ को जानता भी
        चाँदनी के लिए जी रहा हूँ ।