Last modified on 20 नवम्बर 2010, at 22:02

रंग बदलता समाज / संजय मिश्रा 'शौक'

Alka sarwat mishra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:02, 20 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna}} रचनाकार=संजय मिश्रा 'शौक' संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> रंग बदलता सम…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रचनाकार=संजय मिश्रा 'शौक' संग्रह= }}

रंग बदलता समाज------
समाज को आइना दिखाने की एक कोशिश
का नाम कविता है ये सुना था
 मगर जो मैं देखता हू वो तो उलट है इससे
समाज तो आईने के सच को नकारने की
तमाम कोशिश किये हुए है
वो आईने के तो सामने है
मगर वो आँखों को बंद करके
फ़रेबकारी में मुतमईन है!
 ये कैसी दुनिया है जिसमें
कोई किसी से भी मुत्तफिक नहीं है
ये दौरे हाजिर की जर-परस्ती
हर इक गलत को सहीह साबित करेगी कब तक?
मगर ये आँखें जो देखती हैं वो भी तो सच है
यहाँ पे दौलत के आगे हमने
सलाहियत को तमाम इल्मो-हुनर को
सौदागरों से कीमत वसूल करते हुए भी देखा है
क्या करें हम?
ये आईने भी तो अपने सच से हैं कुछ पशेमां
कि अपनी गैरत की फिक्र
करता नहीं है कोई ?
इसीलिए तो जो सच है यारों
जो कुछ भी अच्छा है इस जमीं पर
वही गलत है!!!