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रंग से परे / नचिकेता

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झरे पत्ते
 
पतझरों की मार से हैं
 
डरे पत्ते
 
मारतीं थप्पड़ हवाएं
 
हरी टहनी थरथराए
 
पीलिया से ग्रस्त लगते
 
हरे पत्ते
 
है न कोई जान इसमें
 
फूटती कोंपल न जिसमें
 
जिन्दगी के रंग से हैं
 
परे पत्ते
रूप, रस, स्पर्श खोए
 
गन्ध सिहाने न सोए
 
हैं बनैले जानवर के
 
चरे पत्ते
 
अगर सावन बरस जाए
 
नेह-जल से परस जाए
 
जी उठेंगे; हैं अभी
 
अधमरे पत्ते।
 
 
 
दरख्तों पर पतझर
 
 
घुला हवा में कितना तेज जहर
 
यह पहचानो
 
किसने खिले गुलाबों से
 
उसकी निकहत छीनी
 
सपनीली आँखों से सपनों की दौलत छीनी
 
किसने लिखना दरख्तों पर पतझर
 
यह पहचानो
 
कौन हमारे अहसासों को
 
कुन्द बनाता है
 
खौल रहे जल से घावों की जलन मिटाता है
 
नोच रहा है कौन बया के पर
 
यह पहचानो
 
खेतों के दृग में कितना
 
आतंक समाया है
 
आनेवाले कल का चेहरा क्यों ठिसुआया है
 
किसकी नजर चढ़े गीतों के स्वर
 
यह पहचानो।
 
 
बहन का पत्र
 
 
कुशल-क्षेम से
 
पिया-गेह में
 
बहन तुम्हारी है
 
सुबह
 
सास की झिड़की
 
वदन झिंझोड़ जगाती है
 
और ननद की
 
जली-कटी
 
नश्तरें चुभाती है
 
पूज्य ससुर की
 
आँखों की
 
बढ़ गयी खुमारी है
 
नहीं हाथ में
 
मेहंदी
 
झाडू, चूल्हा-चौका है
 
देवर रहा तलाश
 
निगल जाने का
 
मौका है
 
और जेठ की
 
जिह्वा पर भी रखी
 
दुधारी है
 
पति परमेश्वर
 
सिर्फ चाहता
 
खाना गोस्त गरम
 
और पड़ोसिन के घर
 
लेती है
 
अफवाह जनम
 
करमजली होती
 
शायद
 
दुखियारी नारी है
 
कई लाख लेकर भी
 
गया बनाया
 
दासी है
 
और लिखी
 
किस्मत में शायद
 
गहन उदासी है
 
नहीं सहूंगी-
 
अब दुख की भर गयी
 
तगारी है।
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