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रंग / संजय पुरोहित

रंग-बिरंग
पर्याय बने हैं
उनके जो
सिमटे दुबके हैं
इतिहास की गुफाओं में
रंग
अब भी बोलते हैं
कभी-कभी
लाल ने जगाई थी
मजलूमों में इंकलाब की ज्वाल
हरा चीत्कारा था कभी
करबला के रण में
तो केसरिया शौर्य में
लिपट देता रहा उत्कर्ष
श्वेत भी तो लाया था
शांति संधि की डाक
पीत करता दुखी पर
बनता बसंत का हरकारा
नील देता उन्मुक्तता की बाहें
रंगों का गलियारा
कभी फीका तो कभी चटक
न सिमटे ना उजड़े
फिर भी एक रंग ऐसा भी
जो सदियों से जमे रंगों
के मन में बैठ पैठ गया है
रंग स्याह
काला अंधियारा
जिसके फीके होने
की आस सभी को है
क्यों न रंग बिरंग हो
करें एका और
स्याह पर चढ़ा डालें
एक ऐसी परत कि
उसका अस्तित्व ही न रहे
इस रंग बिरंगी
सृष्टि में