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|रचनाकार=अहमद फ़राज़
|संग्रह=ज़िंदगी ! ए ज़िंदगी ! / अहमद फ़राज़;दर्द आशोब / फ़राज़
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<poem>
क़ुर्बतों<ref>सामीप्य</ref> में भी जुदाई रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के ज़माने माँगे लिए आ दिल वो बेमेह्र<ref>निर्दयी</ref> कि रोने आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के बहाने माँगे लिए आ
अपना ये हाल कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मुहब्बत<ref>प्रेम के जी हार चुके लुट भी चुके गर्व</ref> का भरम रख और मुहब्बत वही अन्दाज़ पुराने माँगे तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ
यही दिल था कि तरसता था पहले से मरासिम <ref>प्रेम-व्यवहार,सम्बन्ध</ref>के लिएन सही फिर भी कभी तो अब यही तर्केरस्मे-तल्लुक़रहे-दुनिया<ref>संबंध-विच्छेदसांसारिक शिष्टाचार</ref> ही निभाने के बहाने माँगेलिए आ
किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम न होते तू मुझ से ख़फा है तो ज़माने के लिए आ  माना के मुहब्बतका छुपाना है मुहब्बत चुपके से किसी और रोज़ जताने के चर्चे होतेलिए आ खल्क़तजैसे तुम्हे आते हैं न आने के बहानेवैसे ही किसी रोज न जाने के लिए  इक उम्र से हूँ लज्ज़त-ए-शहरगिरिया<ref>शहरी जनतारोने के स्वाद</ref> से भी महरूम <ref>वंचित</ref>ऐ राहत-ऐ-जाँ<ref>प्राणाधार</ref> मुझको रुलाने के लिए आ  अब तक दिल-ऐ-ख़ुशफ़हम<ref>किसी की ओर से अच्छा विचार रखने वाला मन</ref> तो कहने को फ़साने माँगे तुझ से है उम्मीदें ये आखिरी शम्अ भी बुझाने के लिए आ
ज़िन्दगी हम तेरे दाग़ों से रहे शर्मिन्दा
और तू है कि सदा आइनेख़ाने<ref>वह भवन जिसके चारों ओर दर्पण लगे हों</ref>माँगे
दिल किसी हाल पे क़ाने<ref>आत्मसंतोषी</ref> ही नहीं जान-ए-"फ़राज़"
मिल गये तुम भी तो क्या और न जाने माँगे
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</poem>
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