भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रक्तबीज/ प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भैंसा फिर उछल रहा है !
घसीट रहा इन्सानियत को जकड़ने,
डालने को कैद में,
अपनी रखैल बना कर !
उछल-उछल बार बार,चला रहा है सींग ,
खुर पटक-पटक कर खूँद रहा है धरती !


वहाँ तो बीज रक्त में थे ,
घरती पर बूँद गिरते नये शरीर खड़े हो जाते !
यहाँ तो मानसिकता है रक्तबीजी ,
फैलते हैं बीज हवा के साथ ,
उगती हैं फ़सलें !
गिनती कहाँ ?
उनकी फ़ितरत में है
विश्व द्रोह !


 विचार- विवेक -वर्जित अँधेरों में जीना
फ़ितरत है उनकी !
ज़िन्दगी के लिये यही शर्त है उनकी !
शताब्दियों की
मनुजता की विरासत,
संस्कृतियाँ ,कलायें , विद्यायें ,
नाम-निशान मिटा दो सब का !
 तोड़ दो ,जला दो सब कुछ
जो उनके अनुकूल नहीं है !


रोशनी नहीं है कहीं !
छाया है कुहासा ,आच्छन्न हैं दिशायें,
आकाश बहुत धुँधला है
 और उन पर किया गया कोई भी प्रहार ,
रोपता असंख्य रक्तबीज !
समाधान सिर्फ़ एक !
इतिहास स्वयं को दोहराये -


 देवों के सार्थक अंशों से रूपायित हुई थी जैसे चण्डिका !
 शक्तियाँ जगत की मिल महाकार धर ,
तुल जायँ करने को आर-पार फ़ैसला !
घेर लें दनुज को उन्मत्त महाकाली सी-
क्रुद्ध, कराल और सन्नद्ध !
प्रचण्ड वार से संहारती
अपनी लाल जिह्वा लपलपाती वही चामुण्डा
तीक्ष्ण दाँतों से चबा-चबा , रक्त पी-पी
उगल डाले रिक्त अंश !


लाओ रोशनी ,किरणें बिखेरो ,
वर्ना दम घुट जायेगा -इन्सानियत का !
कि धरती मुक्त ,हवा निर्मल ,और दिशायें दीप्त हो जायें ,
कि निर्विघ्न हो सके मानवता की जय-यात्रा,
और मंगलाचरण एक नये युगका !