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रखकर पत्थर इस दिल पर तरना पड़ता है / सुरेखा कादियान ‘सृजना’

रखकर पत्थर इस दिल पर तरना पड़ता है
जीने की ख़ातिर कितना मरना पड़ता है

फिर लाख बचो तुम,लाख बचाओ अपनों को
कर्मों का लेखा-जोखा भरना पड़ता है

उस ही रस्ते से मेरी प्यास गुजरती है
जिस रस्ते मीठा सा इक झरना पड़ता है

जब दिख जाए के सुख के बाद खड़ा दुःख है
दामन की खुशियों से भी डरना पड़ता है

सब ठुकरा दें हमको तब ख़ुद से ही हमको
झूठा सच्चा वादा कोई करना पड़ता है

कुछ बातों पर जोर हमारा चलता कब है
सब कुछ खोकर भी धीरज धरना पड़ता है

हँसता है जब भी कोई तेरे रोने पर
फ़िर उसको भी इक रोज़ बिखरना पड़ता है