रचना अनुपम प्रभु तेरी, भरती मेरे मन-मानस में मोद निरंतर
संजीवनी रश्मियाँ दिनकर की लुटाती स्वर्णिम आभा भर-भरकर
हरितिमा के वातायान से झांकते रंगीन प्रसून गुच्छ कोमल ,सुंदर
गूँजते वृंदो के कलरव गान,गाते हैं वो प्रभाती, चहचहाकर
करते हैं अभ्यर्थना सुरभित हरसिंगार सजाते रवि पथ झर-झरकर
सद्धःस्नात से पादपों के ओसकण गिराता चंचल समीर छू कर
इठलाता,खेलता,लुटाता पुष्पों के मकरंद सुवास हंँस कर
तेज फैलाता पूरा करता सूर्य सारथी शनैः शनैः अपना दिवस चक्र
विदा देने आ पहुँची सांझ पहने परिधान सुरमई ,टाँकती तारे सुंदर
दीप प्रज्वलित करती निशा, देती थके जग को विश्राम का अवसर
नीरव यामिनी,झल्ली झंकार फैली चंहु ओर ज्योत्सना धरा तल पर
ईश कृपा बताने को सुनाई देतीं अजान,बानी,घण्टियां शुचिकर
यूँ तो यात्रा मानव जीवन की होती है अतीव ,कष्टकर
प्रभु मेरे ,चाहूं फिर भी मिले पुनः जन्म ले जीने का कोई अवसर
सुरम्य किसी पर्वत घाटी में तितली बनी उड़ूं पंख लहराकर
मुक्त हो छूती रहूँ रचना मनोरम तेरी ,स्वतंत्र हो हुलस-हुलसकर