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रति-विलाप / प्रतिभा सक्सेना

पृष्ठभूमि - उमा के तप की सफलता में ही सृष्टि की समस्याओं का समाधान है, क्योंकि तभी तारकासुर का अंत शंकर के औरस पुत्र द्वारा संभव है.देवताओं ने एकत्र हो कर विचार-विमर्ष किया कि समाधिस्थ शिव उमा से विवाह करने को प्रस्तुत हो ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न की जाएँ.उमा, शंकर को पति-रूप में प्राप्त करने हेतु तप में लीन थीं. शिव की समाधि भंग कर उन के मन में भोग की कामना जगाने का दायित्व देवताओं ने काम देव को सौंपा.कामदेव ने माया रच कर पुष्प-बाणों का संधान कर उनके चित्त को उद्वेलित किया और समाधि खंडित हो गई.आगे -



होगए उन्मन अचानक शंभु
हुई समाधि खंडित.
कुछ नए आभास -
अंतर्मुखी मन का चेत जागा.

खुल गये अरुणाभ लोचन
देखते अति चकित-विस्मित -
अपरिचित दृष्यावली अंकित,
कि मोहक कुहक माया.
तरु-लताय़ें बद्ध गूढ़ालिंगनों में,
पुष्प बिखराते, पराग विकीर्ण करते,
गंध अद्भुत भर, पवन मदहोश करता.
राग-मय, संगीत लहरें घुल रहीं वातावरण में,
रंग अद्भुत ले दिशाएँ रूप धरतीं.
सुशीतल हिमच्छादित पर्वतों पर
नव- वसंत-विहार छाया.
रूप के सौंदर्य के मधुमय निमंत्रण, नृत्य के पदचाप
चारों ओर मुक्त विलास.



मोह से आविष्ट उर,
ज्यों प्यास जग जाए पुरानी,
कामना सोई हुई, अँगड़ाइयाँ ले उठ रहीं,
दोहरा रही ज्यों सृष्टि की आदिम कहानी.
हो गये विक्षुब्ध, विचलित.
धार संयम चित्त पर
अवधान धर, फिर देखते चहुँ ओर शंकर.
इस तपोथल में सभी बदला अचानक,
प्रेरणा किसकी, कि व्यतिक्रम हुआ संभव?



आम्र-कुँजों में छिपा उस ओर -
प्रथम शर से हृदय विचलित शंभु का कर,
काम-धनु पर मंजरित -अशोक साधे
पल्लवों के बीच वह कंदर्प निज आसन जमाये.
साथ ही चिर-यौवना रति.
स्वर्ण-अरुण कपोल पति के सुगढ़ काँधे से सटाये,
शेष तीनों पुष्प- शर कर में (नव मल्लिका, उत्पल कमल-रक्तिम) डुलाती,
लोल लीला भाव, अधरों पर बिखेरे हास,
हो रहे उद्यत कि मादन-शर चढ़ा, तैयार!



क्रुद्ध शंकर,
हो रहे अवरुद्ध मुख के बोल,
देख अब परिणाम,
भंग कर डाली अखंड समाधि,
आरोपित करेगा व्याधि?
हाथ में ले मंजरित शर-चाप,
बन गया तू व्याध?
अब न ही तू, न ये मदिर विलास,
सदा को मिट जाय यह संताप!



भाल पर कुंचन
दहकता- सा खुला पावक नयन!
नील-लोहित तरंगित विद्युत निकल तत्क्षण तड़कती
कौंधती-सी कुंज पर टूटी अचानक,
ढह गया कंदर्प!,
छि़टकी जा गिरी रति सुधि- हता पल्लव-चयों पर.
एक पल दारुण दहन का-
हरित तृण-वीरुध अँगारे लपट लिपटे,
गंध वासन्ती, कसैला धूम.
माँस- मज्जा जलन की तीखी चिराँयध.
काम की त्रैलोक्य मोहन देह
रह गई बस एक मुट्ठी भस्म.
आवरण छाया धुएँ का राग-रंग विहीन,
गगन फीका, दिशाएँ स्तब्ध,
आह, रस मय हास- विलास विलीन!



सुन्दरी, नव-यौवना, सुकुमार
धूलि-धूसर, मूर्छिता रति पड़ी भू-लुंठित,
बिरछ से छिन्न लतिका सी हता.
सुधि न वस्त्रों की विभूषण खुले जाते.
चेतती किंचित कि दारुण रुदन,
करुण प्रलाप भर-भऱ!
भर रही सारी दिशाएँ,
घोर हा-हा कार स्वर उठ.
गूँजता भर घाटियाँ, गिरि शिखर तक जा सिर पटकता,
स्तब्ध पवन, गगन जड़ित, गल रहे हिम-खंड अपने आप.
किस तरह संयत स्वयं हों,
धरें शंभु समाधि!



कोप सारा, बन गया संताप!
हो रहा विचलित हृदय अनुतप्त,
सुन रहे चुपचाप -
शंभु, क्यों दंडित हुआ मम प्राण -सहचर,
सभी देवों की रही अभिसंधि,
और वह निस्वार्थ सहज स्वभाव.
सृष्टि हित संकट लिया सिर धार!
तुष्ट हो शिव, शव बना दो सृष्टि को,
हो कर अकेले चिर जियो.
निर्बाध तारक की सफल हो घात
व्यर्थ कर डालो सभी सुप्रयास!



गूँजता है पवन, वही प्रलाप रति का -
विषम ज्वाला में जली थी सती तब,
तुम दहे थे दारुण विरह के ताप,
ओ,विरागी
अब न होगा याद!



उधर तपती अपर्णा अनजान,
इधर दारुण-वेदना का वेग धारे
अन्तहीन विलाप.
छा रहा सब ओर क्षिति अंबर दिशाओं में
वही विगलित रुदन स्वर.
मूढ विधि, अब बढ़ेगा किस भाँति आगे
यहाँ का क्रम?
सृष्टि के सबसे मधुर संबंध का प्रेरक सुवाहक,
अन्यतम, अपरूप, वह
अनुरूप, शोभन युग्म खंडित.
वृत्तियां सारी सहज, कुंठित हुईं,
उस ओर व्रत धारे कठिन संकल्प,निष्ठा!
क्या पता परिणाम?



अब न कोई कामना मन में जगेगी.
अब न कोई वासना व्यकुल करेगी,
लालसा पूरित तृषाकुल नयन अब
दो स्वर्ण - कलशों की न रस परिमाप लेंगे.
अब नहीं आवेग उफनाता हुआ, उत्तेजना बन
पुरुष के पुरुषत्व का वाहक बनेगा.
कभी साँसें नहीं सुलगेंगी,
न, आकुल चुंबनो-आलिंगनो में उमड़ती दहकन रहेगी.
नारियाँ निस्सत्व सी, निर्वीर्य से नर
ऊष्मा-आवेश बिन किस बीज को रोपें-गहेंगे?
उस नयन की आग ने सब फूँक डाला
सृष्टि का क्रम भंग हो रह जायगा
निष्काम भ्रमती धरा लेती विफल चक्कर.



देखते विभ्रमित शंकर -
प्रकृति में मधु -मास के कोपल न फूटे,
सज न पाये डालियों पर आग के अंकुर अनूठे,
आम्र-कुंजों में पुलकती स्वर्ण-मंजरियाँ न छाईँ,
जो कि नर-कोकिल स्वरों में कूक भर दे.
चर-अचर सब राग से, रस से अछूते.



कल्पना कमनीय कैसे काम बिन हो
और रति ही जब विरत हो किस तरह
रमणीयता इस सृष्टि में विहरण करे
कैसे जगे अनुरक्ति मन में?



कर गया लालित्य कविता से पलायन
रागिनी बन, राग बन,
वेदना से विकल कविता फूटने पाती न
नवरस धार.
विरह तापों से निखर कर महकती
अनुरक्ति मन की,
शब्द में ढलती नहीं.
केवल सतोगुण? चलेगा संसार कैसे.
तीसरा पुरुषार्थ बन जाए अशोभन,
सहज जैविक वृत्तियाँ हत और कुंठित,
सृष्टि की धारा कहाँ का पथ गहेगी?



इधर रति का, हृदय-तल को बेधता स्वर
गूँजते वे शब्द -
रति-से, सुरति से आकर्षणों से,
प्रेम से औ'काम के पुरुषार्थ से
रह कर अपरिचित,
रहो डूबे स्वयं में,
अपर्णा तप तिरस्कृत कर.
उमा का जन्म निष्फल कर,



स्तब्ध औ' हतबुद्ध शंकर!
सोच में डूबे हुए से कह उठे
रति न रो, हो शान्त.
बोल, तेरा प्रिय करूँ क्या?
धैर्य धर, हो कर विगत-संताप!



भस्म कर दो मुझे भी,
दारुण व्यथा का अन्त कर दो!
काम-रति अब सदा को मिट जायँ.
गाथा प्रेम की
अनुरक्तियाँ-आसक्तियाँ, ये भक्ति,
प्रीति-प्रतीतियों के राग
जीवन में न आयें.
देह रति की भस्म कर,
चिन्ता रहित धूनी रमाओ
निर्विकल्प समाधि में जा डूब जाओ!



गूँज भरता रव कि रति उन्मत्त स्वर से
बार-बार महेश को धिक्कारती -सी,
लौट जाओ.
उमा का तप करो निष्फल,
तारकासुर नष्ट-भ्रष्ट करे त्रिपुर,
ओ नाश- कर्ता, काम संग रति दाह कर दो!
जा मगन बैठो कहीं हिमगिरि शिखर पर!
तीसरे पुरुषार्थ से रह जाय वंचित सृष्टि
जीवन-राग बाधित.
शंभु तुम निश्चिंत अपनी साधना में लौट जाओ!



स्तब्ध शिव, फिर -
शान्त हो रति, लौट जा, जा प्रतीक्षा कर
काम नव-तन धार तुझसे आ मिलेगा.
आज मेरी वृत्ति का शोधन किया
रति- प्रीति का तूने यहाँ मंडन किया है!
जगा दी निष्काम मन में फिर उसी की याद तू ने,
सती का अनुताप आ व्यापा अपर्णा की तपन में
देख तेरा दुख-दहन, तेरा समर्पण,
आज फिर उर में प्रिया की याद जागी
प्रेम की दारुण व्यथा का विषम दंशन!



रागिनी-अनुरागिनी बन सरस कर दे सृष्टि के कण,
काम चिर सहचर, सुरति तू ही विवसना वासना बन
और फिर चैतन्य-मन की ऊर्ध्वगामी भावना बन,
शुभे,कुंठाहीन मन को मुक्त कर,
संतृप्ति बन जा, शक्ति बन जा

तुझ बिना संसार यह कैसे चले,
रति-रहित जीवन, सहज व्यवहार भी कैसे चले.
और तेरा पति कहाँ तुझ बिन रहेगा,
छानता आकाश-धरती, लोक तीनों आ मिलेगा!



वासना के आदि का अनुमान तू ही मनसिजे,
उद्दाम यौवन का सुलगता भान तू ही,
जा, सभी शृंगार सज कर कामिनी बन,
राग बन, सौंदर्य बन, माधुर्य बन,
हर एक रचना में, कला में,
सृष्टि में हर राग का आधार तू,
रस-धार तू!
संस्कृतियों में बसी सौजन्य सुरुचि सँवार तू!



रति तुम्हीं हो प्रीति, तुम आसक्ति, तुम अनुरक्ति बनतीं,
कान्ता, वात्सल्य, दासी, सखी-सेवक-स्वामिनी तुम.
सर्वभाविनि हो रहो!
यौवना, चिर-सुन्दरी बन, चिर सुहागिन,
पूजनीया भक्ति, तू ही भुक्ति बन
नवकाम के प्रतिरूप धारे व्याप्ति भी तू
व्यष्टि -सृष्टि- समष्टि में
कामरूपे रति, तुम्हारी गति,
अतीन्द्रिय और शब्दातीत!



शान्त क्रमशः चित्त थिर होने लगा,
फिर नई आशा उमंगें हो उठीं बिंबित हृदय में,
आ झुकी कर-बद्ध रति उन
निरामय उज्ज्वल पगों में!
निरखते हर, नयन में भर
 अपरिमित संवेदनाएँ,
हो रहीं उत्कीर्ण विद्युतदाम सम करुणा-प्रभाएँ!



अभय देता स्वस्तिमय कर
हो उठा आकाश भास्वर,
स्वच्छ दर्पण सी दिशाएँ,
मंद्र-रव भर समीरण देता संदेशा,
पूर्ण होंगी सभी मंगल-कामनाएँ!