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रद्दा सुम्मत के चतवारौ / पाठक परदेशी

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रद्दा सुम्मत के चतवारौ, दुरमत ल दुर्रावौ रे।
एका अउ सद्भाभाव के संगी, तुम संगम बन जवौ रे॥

बलवंता दुरमत होवै झन,
झन, लहू कहूं वोहावै ।
वरपेली झगरा करौ झन,
वैरी, भाई-भाई हो जावै।
चारी खोहारी के डाढ़ा ल, ठुक-ठुक ले झर्रावौरे ।

आस पास अउ ओनहा कोनहा,
झन ऊंच नीच के भाड़ी रहै |
जात धरम उट का पंची म,
झन, वूड़े कोहनी माड़ी रहै।
छुवा छुती के रक्सा ल, धर के कान नचावौ रे।

मंदिर, मस्जिद गिरजा, गुरुद्वार,
न कहय, कोनो झगरा करौ।
मुड़कान ककरो फोरे वर,
नई कहैं, जवर पथरा धरौ ।
सबके आदर एके बरोबर, सब वर माथ नवावौ’रे ।

छरियाये म होथे अनमल
जुरियाये के बात ल सोचौ।
तीपय झन भोंमरा, भोरहा के,
घात करइया हाथ ल रोकौ।
जीवो, मरवो अपन मुलुकवर, अइसन किरिया खावौ रे।
एका अउ सद्धभाव के संगी, तुम संगम बन जावौ रे।