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"रद्दीवाला / अशोक शाह" के अवतरणों में अंतर

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घूम जाता है रद्दीवाला
  
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हों या पुरानी किताबें
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सहेजा गया कोई अख़बार
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सब कुछ खरीद लेता रद्दीवाला
  
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ज्ञान से रखना चाहता मरहूम
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जीवन भर की कमाई को
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एक झटके से लेता हथिया
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रद्दी के भाव
  
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अभी सारे बच्चों ने सीखी नहीं वर्तनी
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पढ़ना आया नहीं ठीक से अख़बार
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जान न सके ख़बरों का मर्म
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पहचान न सके झण्डों के अर्थ
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और पहुँच जाता रद्दीवाला
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खरीदने हमारा इल्म
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कितना कमाया धन हमने रद्दी बेचकर
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और क्या कुछ खो दिया
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करो हिसाब तो लगता है
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हम बचे रह गये हैं
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सिर्फ़ रद्दी के भाव
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आज तक नहीं आया बेचने
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कोई एक किताबवाला
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न वैदि़क सभ्यता से
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न अँग्रेजी हुकूमत से
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जो थमा जाता हाथों में
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आधी लिखी कॉपी कोई
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अधूरी पढ़़ी गई किताब
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तब हमारी यह पीढ़ी कुछ अलग होती
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चाँद जैसे चेहरों को मामा न कहती
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न शनि को तेल चढ़ाती
  
 
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14:58, 26 जून 2021 के समय का अवतरण

बिना नागा किए ज़िन्दगी का दिन एक भी
गली-गली, गाँव-गाँव
आवाज़ लगाते
शहर-दर-शहर
घूम जाता है रद्दीवाला

अध-लिखी कॉपियाँ
हों या पुरानी किताबें
डायरी के भींगे पन्ने
सहेजा गया कोई अख़बार
सब कुछ खरीद लेता रद्दीवाला

अदेखे किस कोने से आता वह
ज्ञान से रखना चाहता मरहूम
जीवन भर की कमाई को
एक झटके से लेता हथिया
रद्दी के भाव

अभी सारे बच्चों ने सीखी नहीं वर्तनी
पढ़ना आया नहीं ठीक से अख़बार
जान न सके ख़बरों का मर्म
पहचान न सके झण्डों के अर्थ
और पहुँच जाता रद्दीवाला
खरीदने हमारा इल्म

कितना कमाया धन हमने रद्दी बेचकर
और क्या कुछ खो दिया
करो हिसाब तो लगता है
हम बचे रह गये हैं
सिर्फ़ रद्दी के भाव

आज तक नहीं आया बेचने
कोई एक किताबवाला
न वैदि़क सभ्यता से
न अँग्रेजी हुकूमत से
जो थमा जाता हाथों में
आधी लिखी कॉपी कोई
अधूरी पढ़़ी गई किताब

तब हमारी यह पीढ़ी कुछ अलग होती
चाँद जैसे चेहरों को मामा न कहती
न शनि को तेल चढ़ाती