भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रमज़ान में बुलडोजर / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:12, 22 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लीलाधर मंडलोई |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हैराँ हूँ इन उजड़े घरों को देखकर
ख़ाक़ उठती है घरों से
कुछ नहीं है बाक़ी उठाने को
यह वो शहर तो नहीं

जहाँ हर क़दम पर ज़िन्दगियाँ रोशन हुआ करती थीं
अब ऐसा बुलडोजर निज़ाम
और मातम-ही-मातम

चौतरफ़ा कम होती सांसों में भागते-थकते लोग
नमाज़ में झुके सर
और दुआओं में उठे खाली हाथ
माँग रहे है सांसें रमजान के मुक़द्दस माह में

अब यहां ईदी में बर्बाद जीवन के अलावा
कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं.