भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 5

Kavita Kosh से
203.124.151.82 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 12:22, 17 जुलाई 2006 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लेखक: रामधारी सिंह "दिनकर"

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

''शरासन तान, बस अवसर यही है ,
घडी फ़िर और मिलने की नहीं है .
विशिख कोई गले के पार कर दे ,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे .''

श्रवण कर विश्वगुरु की देशना यह ,
विजय के हेतु आतुर एषणा यह ,
सहम उट्ठा जरा कुछ पार्थ का मन ,
विनय में ही, मगर, बोला अकिञ्चन .

''नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म होगा ?
मलिन इससे नहीं क्या धर्म होगा ?''
हंसे केशव, ''वृथा हठ ठानता है .
अभी तू धर्म को क्या जानता है ?''

''कहूं जो, पाल उसको, धर्म है यह .
हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह .
क्रिया को छोड चिन्तन में फंसेगा ,
उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा .''

भला क्यों पार्थ कालाहार होता ?
वृथा क्यों चिन्तना का भार ढोता ?
सभी दायित्व हरि पर डाल करके ,
मिली जो शिष्टि उसको पाल करके ,

लगा राधेय को शर मारने वह ,
विपद् में शत्रु को संहारने वह ,
शरों से बेधने तन को, बदन को ,
दिखाने वीरता नि:शस्त्र जन को .

विशिख सन्धान में अर्जुन निरत था ,
खडा राधेय नि:सम्बल, विरथ था ,
खडे निर्वाक सब जन देखते थे ,
अनोखे धर्म का रण देखते थे .

नहीं जब पार्थ को देखा सुधरते ,
हृदय में धर्म का टुक ध्यान धरते .
समय के योग्य धीरज को संजोकर ,
कहा राधेय ने गम्भीर होकर .

''नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो !
बहुत खेले, जरा विश्राम तो लो .
फंसे रथचक्र को जब तक निकालूं ,
धनुष धारण करूं, प्रहरण संभालूं  ,''

''रुको तब तक, चलाना बाण फिर तुम ;
हरण करना, सको तो, प्राण फिर तुम .
नहीं अर्जुन ! शरण मैं मागंता हूं ,
समर्थित धर्म से रण मागंता हूं .''

''कलकिंत नाम मत अपना करो तुम ,
हृदय में ध्यान इसका भी धरो तुम .
विजय तन की घडी भर की दमक है ,
इसी संसार तक उसकी चमक है .''

''भुवन की जीत मिटती है भुवन में ,
उसे क्या खोजना गिर कर पतन में ?
शरण केवल उजागर धर्म होगा ,
सहारा अन्त में सत्कर्म होगा .''

उपस्थित देख यों न्यायार्थ अरि को ,
निहारा पार्थ ने हो खिन्न हरि को .
मगर, भगवान् किञ्चित भी न डोले ,
कुपित हो वज्र-सी यह वात बोले _

''प्रलापी ! ओ उजागर धर्म वाले !
बडी निष्ठा, बडे सत्कर्म वाले !
मरा, अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन ,
कहां पर सो रहा था धर्म उस दिन ?''

''हलाहल भीम को जिस दिन पडा था ,
कहां पर धर्म यह उस दिन धरा था ?
लगी थी आग जब लाक्षा-भवन में,
हंसा था धर्म ही तब क्या भुवन में ?''

''सभा में द्रौपदी की खींच लाके ,
सुयोधन की उसे दासी बता के ,
सुवामा-जाति को आदर दिया जो ,
बहुत सत्कार तुम सबने किया जो ,''

''नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था ,
उजागर, शीलभूषित धर्म ही था .
जुए में हारकर धन-धाम जिस दिन ,
हुए पाणडव यती निष्काम जिस दिन ,''

''चले वनवास को तब धर्म था वह ,
शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह .
अवधि कर पूर्ण जब, लेकिन, फिरे वे ,
असल में, धर्म से ही थे गिरे वे .''