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रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 6

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''बडे पापी हुए जो ताज मांगा ,
किया अन्याय; अपना राज मांगा .
नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं ,
अधी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं ?''

''हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे ?
सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे ?
कि दगे धर्म को बल अन्य जन भी ?
तजेंगे क्रूरता-छल अन्य जन भी ?''

''न दी क्या यातना इन कौरवों ने ?
किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने ?
मगर, तेरे लिए सब धर्म ही था ,
दुहित निज मित्र का, सत्कर्म ही था .''

''किये का जब उपस्थित फल हुआ है ,
ग्रसित अभिशाप से सम्बल हुआ है ,
चला है खोजने तू धर्म रण में ,
मृषा किल्विष बताने अन्य जन में .''

''शिथिल कर पार्थ ! किंचित् भी न मन तू .
न धर्माधर्म में पड भीरु बन तू .
कडा कर वक्ष को, शर मार इसको ,
चढा शायक तुरत संहार इसको .''

हंसा राधेय, ''हां अब देर भी क्या ?
सुशोभन कर्म में अवसेर भी क्या ?
कृपा कुछ और दिखलाते नहीं क्यों ?
सुदर्शन ही उठाते हैं नहीं क्यों ?''

''कहा जो आपने, सब कुछ सही है ,
मगर, अपनी मुझे चिन्ता नहीं है ?
सुयोधन-हेतु ही पछता रहा हूं ,
बिना विजयी बनाये जा रहा हूं .''

''वृथा है पूछना किसने किया क्या ,
जगत् के धर्म को सम्बल दिया क्या !
सुयोधन था खडा कल तक जहां पर ,
न हैं क्या आज पाण्डव ही वहां पर ?''

''उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोडा ?
किये से कौन कुत्सित कर्म छोडा ?
गिनाऊं क्या ? स्वयं सब जानते हैं ,
जगद्गुरु आपको हम मानते है .''

''शिखण्डी को बनाकर ढाल अर्जुन ,
हुआ गांगेय का जो काल अर्जुन ,
नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था .
हरे ! कह दीजिये, वह धर्म ही था .''

''हुआ सात्यकि बली का त्राण जैसे ,
गये भूरिश्रवा के प्राण जैसे ,
नहीं वह कृत्य नरता से रहित था ,
पतन वह पाण्डवों का धर्म-हित था .''

''कथा अभिमन्यु की तो बोलते हैं ,
नहीं पर, भेद यह क्यों खोलते हैं ?
कुटिल षडयन्त्र से रण से विरत कर ,
महाभट द्रोण को छल से निहत कर ,''

''पतन पर दूर पाण्डव जा चुके है ,
चतुर्गुण मोल बलि का पा चुके हैं .
रहा क्या पुण्य अब भी तोलने को ?
उठा मस्तक, गरज कर बोलने को ?''

''वृथा है पूछना, था दोष किसका ?
खुला पहले गरल का कोष किसका ?
जहर अब तो सभी का खुल रहा है ,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है .''