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रहीम दोहावली - 3

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नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन।
मीठो भावै लोन पर, अरु मीठे पर लौन॥121॥

पन्‍नग बेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान।
हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान॥122॥

परि रहिबो मरिबो भलो, सहिबो कठिन कलेस।
बामन है बलि को छल्‍यो, भलो दियो उपदेस॥123॥

पसरि पत्र झँपहि पितहिं, सकुचि देत ससि सीत।
कहु र‍हीम कुल कमल के, को बैरी को मीत॥124॥

पात पात को सींचिबो, बरी बरी को लौन।
रहिमन ऐसी बुद्धि को, कहो बरैगो कौन॥125॥

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर बक्‍ता भए, हमको पूछत कौन॥126॥

पिय बियोग तें दुसह दुख, सूने दुख ते अंत।
होत अंत ते फिर मिलन, तोरि सिधाए कंत॥127॥

पुरुष पूजें देवरा, तिय पूजें रघुनाथ।
कहँ रहीम दोउन बनै, पॅंड़ो बैल को साथ॥128॥

प्रीतम छबि नैनन बसी, पर छवि कहाँ समाय।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाय॥129॥

प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं।
रहिमन मैन-तुरंग चढ़ि, चलिबो पाठक माहिं॥130॥

फरजी सह न ह्य सकै, गति टेढ़ी तासीर।
रहिमन सीधे चालसों, प्‍यादो होत वजीर॥131॥

बड़ माया को दोष यह, जो कबहूँ घटि जाय।
तो रहीम मरिबो भलो, दुख सहि जिय बलाय॥132॥

बड़े दीन को दुख सुनो, लेत दया उर आनि।
हरि हाथी सो कब हुतो, कहु र‍हीम पहिचानि॥133॥

बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बा‍ढ़ि।
यातें हाथी हहरि कै, दयो दाँत द्वै का‍ढ़ि॥134॥

बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ।
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ॥135॥

बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोलैं बोल।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल॥1361।

बढ़त रहीम धनाढ्य धन, धनौ धनी को जाइ।
घटै बढ़ै बाको कहा, भीख माँगि जो खाइ॥137॥

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह र‍हीम जिय सोस।
महिमा घटी समुद्र की, रावन बस्‍यो परोस॥138॥

बाँकी चितवन चित चढ़ी, सूधी तौ कछु धीम।
गाँसी ते बढ़ि होत दुख, का‍ढ़ि न कढ़त रहीम॥139॥

बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय॥140॥

बिपति भए धन ना रहे, रहे जो लाख करोर।
नभ तारे छिपि जात हैं, ज्‍यों रहीम भए भोर॥141॥

भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन।
भजन तजन ते बिलग हैं, तेहि रहीम तू जान॥142॥

भलो भयो घर ते छुट्यो, हँस्‍यो सीस परिखेत।
काके काके नवत हम, अपन पेट के हेत॥143॥

भार झोंकि के भार में, रहिमन उतरे पार।
पै बूड़े मझधार में, जिनके सिर पर भार॥144॥

भावी काहू ना दही, भावी दह भगवान।
भावी ऐसी प्रबल है, कहि रहीम यह जान॥145॥

भावी या उनमान को, पांडव बनहि रहीम।
जदपि गौरि सुनि बाँझ है, बरु है संभु अजीम॥146॥

भीत गिरी पाखान की, अररानी वहि ठाम।
अब रहीम धोखो यहै, को लागै केहि काम॥147॥

भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप।
रहिमन गिर तें भूमि लौं, लखों तो एकै रूप॥148॥

मथत मथत माखन रहै, दही मही बिलगाय।
रहिमन सोई मीत है, भीर परे ठहराय॥149॥

मनिसिज माली की उपज, कहि रहीम नहिं जाय।
फल श्‍यामा के उर लगे, फूल श्‍याम उर आय॥150॥

मन से कहाँ रहिम प्रभु, दृग सो कहाँ दिवान।
देखि दृगन जो आदरै, मन तेहि हाथ बिकान॥151॥

मंदन के मरिहू गये, औगुन गुन न सिराहिं।
ज्‍यों रहीम बाँधहु बँधे, मराह ह्वै अधिकाहिं॥1521।

मनि मनिक महँगे किये, ससतो तृन जल नाज।
याही ते हम जानियत, राम गरीब निवाज॥153॥

महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष।
सो अर्जुन बैराट घर, रहे नारि के भेष॥154॥

माँगे घटत रहीम पद, कितौ करौ बढ़ि काम।
तीन पैग बसुधा करो, तऊ बावनै नाम॥155॥

माँगे मुकरि न को गयो, केहि न त्‍यागियो साथ।
माँगत आगे सुख लह्यो, ते रहीम रघुनाथ॥156॥

मान सरोवर ही मिले, हंसनि मुक्‍ता भोग।
सफरिन भरे रहीम सर, बक-बालकनहिं जोग॥157॥

मान सहित विष खाय के, संभु भये जगदीस।
बिना मान अमृत पिये, राहु कटायो सीस॥158॥

माह मास लहि टेसुआ, मीन परे थल और।
त्‍यों रहीम जग जानिये, छुटे आपुने ठौर॥159॥

मीन कटि जल धोइये, खाये अधिक पियास।
रहिमन प्रीति सराहिये, मुयेउ मीन कै आस॥160॥

मुकता कर करपूर कर, चातक जीवन जोय।
एतो बड़ो रहीम जल, ब्‍याल बदन विष होय॥161॥

मुनि नारी पाषान ही, कपि पसु गुह मातंग।
तीनों तारे राम जू, तीनों मेरे अंग॥162॥

मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं बिसेषि।
स्‍याम कचन में सेत ज्‍यों, दूरि कीजिअत देखि॥163॥

यह न रहीम सराहिये, देन लेन की प्रीति।
प्रानन बाजी राखिये, हारि होय कै जीति॥165॥

यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय।
बैर, प्रीति, अभ्‍यास, जस, होत होत ही होय॥166॥

यह रहीम मानै नहीं, दिल से नवा जो होय।
चीता, चोर, कमान के, नये ते अवगुन होय॥167॥

याते जान्‍यो मन भयो, जरि बरि भस्‍म बनाय।
रहिमन जाहि लगाइये, सो रूखो ह्वै जाय॥168॥

ये रहीम फीके दुवौ, जानि महा संतापु।
ज्‍यों तिय कुच आपुन गहे, आप बड़ाई आपु॥169॥

ये रहीम दर-दर फिरै, माँगि मधुकरी खाहिं।
यारो यारी छाँडि देउ, वे रहीम अब नाहिं॥170॥

यों रहीम गति बड़ेन की, ज्‍यों तुरंग व्‍यवहार।
दाग दिवावत आपु तन, सही होत असवार॥171॥

यों रहीम तन हाट में, मनुआ गयो बिकाय।
ज्‍यों जल में छाया परे, काया भीतर नॉंय॥172॥

यों रहीम सुख दुख सहत, बड़े लोग सह साँति।
उवत चंद जेहि भाँति सो, अथवत ताही भाँति॥173॥

रन, बन, ब्‍याधि, विपत्ति में, रहिमन मरै न रोय।
जो रच्‍छक जननी जठर, सो हरि गये कि सोय॥174॥

रहिमन अती न कीजिये, गहि रहिये निज कानि।
सैजन अति फूले तऊ डार पात की हानि॥175॥

रहिमन अपने गोत को, सबै चहत उत्‍साह।
मृ्ग उछरत आकाश को, भूमी खनत बराह॥176॥

रहिमन अपने पेट सौ, बहुत कह्यो समुझाय।
जो तू अन खाये रहे, तासों को अनखाय॥177॥

रहिमन अब वे बिरछ कहँ, जिनकी छॉह गंभीर।
बागन बिच बिच देखिअत, सेंहुड़, कुंज, करीर॥178॥

रहिमन असमय के परे, हित अनहित ह्वै जाय।
बधिक बधै मृग बानसों, रुधिरे देत बताय॥179॥

रहिमन अँसुआ नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ।
जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कहि देइ॥180॥