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रहीम दोहावली - 5

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|रचनाकार=रहीम
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|संग्रह=रहीम दोहावली
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[[Category:दोहे]]उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान । {{KKCatDoha}}<BR/poem>सावन दिन मनभावनरहिमन राम न उर धरै, करत पयान ॥ 401 ॥ <BR/><BR/>रहत विषय लपटाय।पसु खर खात सवादसों, गुर गुलियाए खाय॥241॥
समुझति सुमुखि सयानीरहिमन रिस को छाँड़ि कै, बादर झूम । <BR/>करौ गरीबी भेस।बिरहिन के हिय भभतकमीठो बोलो नै चलो, तिनकी धूम ॥ 402 ॥ <BR/><BR/>सबै तुम्‍हारो देस।1242॥
उलहे नये अंकुरवारहिमन रिस सहि तजत नहीं, बिन बलवीर । <BR/>बड़े प्रीति की पौरि।मानहु मदन महिप केमूकन मारत आवई, बिन पर तीर ॥ 403 ॥ <BR/><BR/>नींद बिचारी दौरी॥243॥
सुगमहि गातहि गारनरहिमन रीति सराहिए, जारन देह । <BR/>जो घट गुन सम होय।अगम महा अति पारनभीति आप पै डारि कै, सुघर सनेह ॥ 404 ॥ <BR/><BR/>सबै पियावै तोय॥244॥
मनमोहन तुव मुरतिरहिमन लाख भली करो, बेरिझबार । <BR/>अगुनी अगुन न जाय।बिन पियान मुहि बनिहैराग सुनत पय पिअत हू, सकल विचार ॥ 405 ॥ <BR/><BR/>साँप सहज धरि खाय॥245॥
झूमि-झूमि चहुँ ओरनरहिमन वहाँ न जाइये, बरसत मेह । <BR/>जहाँ कपट को हेत।त्यों त्यों पिय बिन सजनीहम तन ढारत ढेकुली, तरसत देह ॥ 406 ॥ <BR/><BR/>झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात । <BR/>फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ॥ 407 ॥ <BR/><BR/>सींचत अपनो खेत॥2461।
डोलत त्रिबिध मरुतवारहिमन वित्‍त अधर्म को, सुखद सुढार । <BR/>जरत न लागै बार।हरि बिन लागब सजनीचोरी करी होरी रची, जिमि तरवार ॥ 408 ॥ <BR/><BR/>भई तनिक में छार॥247॥
कहियो पथिक संदेसवारहिमन विद्या बुद्धि नहिं, गहि के पाय । <BR/>नहीं धरम, जस, दान।मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय ॥ 409 ॥ <BR/><BR/>भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिनु पूँछ बिषान॥248॥
जबते आयौ सजनीरहिमन बिपदाहू भली, मास असाढ़ । <BR/>जो थोरे दिन होय।जानी सखि वा तिन केहित अनहित या जगत में, हिम की गाढ़ ॥ 410 ॥ <BR/><BR/>जानि परत सब कोय॥249॥
मनमोहन बिन तिय केरहिमन वे नर मर चुके, हिय दुख बाढ़ । <BR/>जे कहुँ माँगन जाहिं।आये नन्द दिठनवाउनते पहिले वे मुए, लगत असाढ़ ॥ 411 ॥ <BR/><BR/>जिन मुख निकसत नाहिं॥250॥
वेद पुरान बखानतरहिमन सीधी चाल सों, अधम उधार । <BR/>प्‍यादा होत वजीर।केहि कारन करूनानिधिफरजी साह न हुइ सकै, करत विचार ॥ 412 ॥ <BR/><BR/>गति टेढ़ी तासीर॥251॥
लगत असाढ़ कहत होरहिमन सुधि सबतें भली, चलन किसोंर । <BR/>लगै जो बारंबार।घन घुमड़े चहुँ औरनबिछुरे मानुष फिरि मिलें, नाचत मोर ॥ 413 ॥ <BR/><BR/>यहै जान अवतार॥252॥
लखि पावस ॠतु सजनीरहिमन सो न कछू गनै, पिय परदेस । <BR/>जासों, लागे नैन।गहन लग्यौ अबलनि पैसहि के सोच बेसाहियो, धनुष सुरेस ॥ 414 ॥ <BR/><BR/>गयो हाथ को चैन॥253॥
बिरह बढ्यौ सखि अंगनराम नाम जान्‍यो नहीं, बढ्यौ चवाव । <BR/>भइ पूजा में हानि।करयो निठुर नन्दनन्दनकहि रहीम क्‍यों मानिहैं, कौन कुदाव ॥ 415 ॥ <BR/><BR/>जम के किंकर कानि॥254॥
भज्यो कितौ न जनम भरिराम नाम जान्‍यो नहीं, कितनी जाग । <BR/>जान्‍यो सदा उपाधि।संग रहत या तन कीकहि रहीम तिहिं आपुनो, छाँही भाग ॥ 416 ॥ <BR/><BR/>जनम गँवायो बादि॥255॥
भज र मन नन्दनन्दनरीति प्रीति सब सों भली, विपति बिदार । <BR/>बैर न हित मित गोत।गोपी-जन-मन-रंजनरहिमन याही जनम की, परम उदार ॥ 417 ॥ <BR/><BR/>जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग । <BR/>हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ॥ 418 ॥ <BR/><BR/>बहुरि न संगति होत॥256॥
जदपि भई जल पूरितरूप, छितव सुआस । <BR/>कथा, पद, चारु, पट, कंचन, दोहा, लाल।स्वाति बूँद बिन चातकज्‍यों ज्‍यों निरखत सूक्ष्‍मगति, मरत-पियास ॥ 419 ॥ <BR/><BR/>मोल रहीम बिसाल॥257॥
देखन ही को निसदिनरूप बिलोकि रहीम तहँ, तरफत देह । <BR/>जहँ जहँ मन लगि जाय।यही होत मधुसूदनथाके ताकहिं आप बहु, पूरन नेह ॥ 420 ॥ <BR/><BR/>लेत छौड़ाय छोड़ाय॥258॥
कब तें देखत सजनीरोल बिगाड़े राज नै, बरसत मेह । <BR/>मोल बिगाड़े माल।गनत न चढ़े अटन पैसनै सनै सरदार की, सने सनेह ॥ 421 ॥ <BR/><BR/>चुगल बिगाड़े चाल॥259॥
विरह विथा तें लखियतलालन मैन तुरंग चढ़ि, मरिबौं झूरि । <BR/>चलिबो पावक माँहिं।जो नहिं मिलिहै मोहनप्रेम-पंथ ऐसो कठिन, जीवन मूरि ॥ 422 ॥ <BR/><BR/>सब कोउ निबहत नाहिं॥260॥
उधौं भलौ न कहनौलिखी रहीम लिलार में, कछु पर पूठि । <BR/>भई आन की आन।साँचे ते भे झूठेपद कर काटि बनारसी, साँची झूठि ॥ 423 ॥ <BR/><BR/>पहुँचे मगरु स्‍थान॥261॥
भादों निस अँधियरियालोहे की न लोहार का, घर अँधियार । <BR/>रहिमन कही विचार।बिसरयो सुघर बटोहीजो हनि मारे सीस में, शिव आगार ॥ 424 ॥ <BR/><BR/>ताही की तलवार॥262॥
हौं लखिहौ री सजनीबरु रहीम कानन भलो, चौथ मयंक । <BR/>बास करिय फल भोग।देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक ॥ 425 ॥ <BR/><BR/>बंधु मध्‍य धनहीन ह्वै बसिबो उचित न योग॥263॥
इन बातन कछु होत नबहै प्रीति नहिं रीति वह, कहो हजार । <BR/>नहीं पाछिलो हेत।सबही तैं हँसि बोलतघटत घटत रहिमन घटै, नन्दकुमार ॥ 426 ॥ <BR/><BR/>ज्‍यों कर लीन्‍हें रेत॥264॥
कहा छलत को ऊधौबिधना यह जिय जानि कै, दै परतीति । <BR/>सेसहि दिये न कान।सपनेहूं नहिं बिसरैधरा मेरु सब डोलि हैं, मोहनि-मीति ॥ 427 ॥ <BR/><BR/>तानसेन के तान॥265॥
बन उपवन गिरि सरिताबिरह रूप धन तम भयो, जिती कठोर । <BR/>अवधि आस उद्योत।लगत देह से बिछुरेज्‍यों रहीम भादों निसा, नन्द किसोर ॥ 428 ॥ <BR/><BR/>भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि । <BR/>कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि ॥ 429 ॥ <BR/><BR/>चमकि जात खद्योत॥266॥
अदिहि-ते सब छुटगोवे रहीम नर धन्‍य हैं, जग व्यौहार । <BR/>पर उपकारी अंग।ऊधो अब न तिनौं भरिबाँटनेवारे को लगे, रही उधार ॥ 430 ॥ <BR/><BR/>ज्‍यों मेंहदी को रंग॥267॥
घेर रह्यौ दिन रतियाँसदा नगारा कूच का, विरह बलाय । <BR/>बाजत आठों जाम।मोहन की वह बतियाँरहिमन या जग आइ कै, ऊधो हाय ॥ 431 ॥ <BR/><BR/>को करि रहा मुकाम॥268॥
नर नारी मतवारीसब को सब कोऊ करै, अचरज नाहिं । <BR/>कै सलाम कै राम।होत विटपहू नागौहित रहीम तब जानिए, फागुन माहि ॥ 432 ॥ <BR/><BR/>जब कछु अटकै काम॥269॥
सहज हँसोई बातेंसबै कहावै लसकरी, होत चवाइ । <BR/>सब लसकर कहँ जाय।मोहन कों तन सजनीरहिमन सेल्‍ह जोई सहै, दै समुझाइ ॥ 433 ॥ <BR/><BR/>सो जागीरैं खाय॥270॥
ज्यों चौरसी लख मेंसमय दसा कुल देखि कै, मानुष देह । <BR/>सबै करत सनमान।त्योंही दुर्लभ जग मेंरहिमन दीन अनाथ को, सहज सनेह ॥ 434 ॥ <BR/><BR/>तुम बिन को भगवान॥271॥
मानुष तन अति दुर्लभसमय परे ओछे बचन, सहजहि पाय । <BR/>सब के सहै रहीम।हरि-भजि कर संत संगतिसभा दुसासन पट गहे, कह्यौ जताय ॥ 435 ॥ <BR/><BR/>गदा लिए रहे भीम॥272॥
अति अदभुत छबि- सागरसमय पाय फल होत है, मोहन-गात । <BR/>समय पाय झरि जाय।देखत ही सखि बूड़तसदा रहे नहिं एक सी, दृग-जलजात ॥ 436 ॥ <BR/><BR/>का रहीम पछिताय॥273॥
निरमोंही अति झूँठौसमय लाभ सम लाभ नहिं, साँवर गात । <BR/>समय चूक सम चूक।चुभ्यौ रहत चतुरन चित कौधौंरहिमन लगी, जानि न जात ॥ 437 ॥ <BR/><BR/>समय चूक की हूक॥274॥
बिन देखें कल नाहिनसरवर के खग एक से, यह अखियान । <BR/>बाढ़त प्रीति न धीम।पल-पल कटत कलप सोंपै मराल को मानसर, अहो सुजान ॥ 438 ॥ <BR/><BR/>एकै ठौर रहीम॥275॥
जब तब मोहन झूठीसर सूखे पच्‍छी उड़ै, सौंहें खात । <BR/>औरे सरन समाहिं।इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ॥ 439 ॥ <BR/><BR/>ब्रज-बासिन दीन मीन बिन पच्‍छ के मोहन, जीवन प्रान । <BR/>ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान ॥ 440 ॥ <BR/><BR/>कहु र‍हीम कहँ जाहिं॥276॥
मोहि मीत बिन देखेंस्‍वारथ रचन रहीम सब, छिन न सुहात । <BR/>औगुनहू जग माँहि।पल पल भरि भरि उलझतबड़े बड़े बैठे लखौ, दृग जल जात ॥ 441 ॥ <BR/><BR/>पथ रथ कूबर छाँहि॥277॥
जब तें बिछरे मितवास्‍वासह तुरिय उच्‍चरै, कहु कस चैन । <BR/>तिय है निहचल चित्‍त।रहत भरयौ हिय साँसनपूत परा घर जानिए, आँसुन नैन ॥ 442 ॥ <BR/><BR/>रहिमन तीन पवित्‍त॥278॥
कैसे जावत कोऊसाधु सराहै साधुता, दूरि बसाय । <BR/>जती जोखिता जान।पल अन्तरहूं सजनीरहिमन साँचै सूर को, रह्यो न जाय ॥ 443 ॥ <BR/><BR/>बैरी करै बखान॥279॥
जान कहत हो ऊधौसौदा करो सो करि चलौ, अवधि बताइ । <BR/>रहिमन याही बाट।अवधि अवधि-लौं दुस्तरफिर सौदा पैहो नहीं, परत लखाइ ॥ 444 ॥ <BR/><BR/>दूरी जान है बाट॥280॥
मिलनि न बनि है भाखतसंतत संपति जानि कै, इन इक टूक । <BR/>सब को सब कुछ देत।भये सुनत ही हिय केदीनबंधु बिनु दीन की, अगनित टूक ॥ 445 ॥ <BR/><BR/>को रहीम सुधि लेत॥281॥
गये हरि हरि सजनीसंपति भरम गँवाइ कै, बिहँसि कछूक । <BR/>हाथ रहत कछु नाहिं।तबते लगनि अगनि कीज्‍यों रहीम ससि रहत है, उठत भभूक ॥ 446 ॥ <BR/><BR/>दिवस अकासहिं माहिं॥282॥
होरी पूजत सजनीससि की सीतल चाँदनी, जुर नर नारि । <BR/>सुंदर, सबहिं सुहाय।जरि-बिन जानहु जिय लगे चोर चित मेंलटी, दई दवारि ॥ 447 ॥ <BR/><BR/>घटी रहीम मन आय॥283॥
दिस बिदसान करत ज्योंससि, कोयल कू । <BR/>सुकेस, साहस, सलिल, मान सनेह रहीम।चतुर उठत है त्यों त्योंबढ़त बढ़त बढ़ि जात हैं, हिय में हूक ॥ 448 ॥ <BR/><BR/>घटत घटत घटि सीम॥284॥
जबते मोहन बिछुरेसीत हरत, कछु सुधि नाहिं । <BR/>तम हरत नित, भुवन भरत नहिं चूक।रहे प्रान परि पलकनिरहिमन तेहि रबि को कहा, दृग मग माहिं ॥ 449 ॥ <BR/><BR/>जो घटि लखै उलूक॥285॥
उझिक उझिक चित दिन दिनहरि रहीम ऐसी करी, हेरत द्वार । <BR/>ज्‍यों कमान सर पूर।जब ते बिछुरे सजनीखैंचि अपनी ओर को, नेन्द्कुमार ॥ 450 ॥ <BR/><BR/>मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान । <BR/>हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ॥ 451 ॥ <BR/><BR/>डारि दियो पुनि दूर॥286॥
जक न परत बिन हेरेहरी हरी करुना करी, सखिन सरोस । <BR/>सुनी जो सब ना टेर।हरि न मिलत बसि नेरेजब डग भरी उतावरी, यह अफसोस ॥ 452 ॥ <BR/><BR/>हरी करी की बेर॥287॥
चतुर मया करि मिलिहौंहित रहीम इतऊ करै, तुरतहिं आय । <BR/>जाकी जिती बिसात।बिन देखे निस बासरनहिं यह रहै न वह रहै, तरफत जाय ॥ 453 ॥ <BR/><BR/>रहै कहन को बात॥288॥
तुम सब भाँतिन चतुरेहोत कृपा जो बड़ेन की सो कदाचि घटि जाय।तौ रहीम मरिबो भलो, यह कल बात । <BR/>होरि के त्यौहारन, पीहर जात ॥ 454 ॥ <BR/><BR/>दुख सहो न जाय॥289॥
और कहा हरि कहियेहोय न जाकी छाँह ढिग, चनि यह नेह । <BR/>फल रहीम अति दूर।देखन बढ़िहू सो बिनु काज ही को निसदिन, तरफत देह ॥ 455 ॥ <BR/><BR/>जैसे तार खजूर॥290॥
जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास । <BR/>बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ॥ 456 ॥ <BR/><BR/>'''सोरठा'''
अन्तरग्त हिय बेधतओछे को सतसंग, छेदत प्रान । <BR/>रहिमन तजहु अँगार ज्‍यों।विष सम परम सबन तेंतातो जारै अंग, लोचन बान ॥ 457 ॥ <BR/><BR/>सीरो पै करो लगै॥291॥
गली अँधेदी मिल कैरहिमन कीन्‍हीं प्रीति, रहि चुपचाप । <BR/>साहब को भावै नहीं।बरजोरी मनमोहनजिनके अगनित मीत, करत मिलाप ॥ 458 ॥ <BR/><BR/>हमैं गीरबन को गनै॥292॥
सास ननद गुरु पुरजनरहिमन जग की रीति, रहे रिसाय । <BR/>मैं देख्‍यो रस ऊख में।मोहन हू अस निसरेताहू में परतीति, हे सखि हाय ॥ 459 ॥ <BR/><BR/>जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं॥293॥
उन बिन कौन निबाहैजाके सिर अस भार, हित की लाज । <BR/>सो कस झोंकत भार अस।ऊधो तुमहू कहियोरहिमन उतरे पार, धनि बृजराज ॥ 460 ॥ <BR/><BR/>भार झोंकि सब भार में॥294॥
जिहिके लिये जगत मेंरहिमन नीर पखान, बजै निसान । <BR/>बूड़ै पै सीझै नहीं।तिहिं-ते करे अबोलनतैसे मूरख ज्ञान, कौन सयान ॥ 461 ॥ <BR/><BR/>रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर । <BR/>जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर ॥ 462 ॥ <BR/><BR/>बूझै पै सूझै नहीं॥295॥
विरहिन को सब भाखतरहिमन बहरी बाज, अब जनि रोय । <BR/>गगन चढ़ै फिर क्‍यों तिरै।पीर पराई जानैपेट अधम के काज, तब कहु कोय ॥ 463 ॥ <BR/><BR/>फेरि आय बंधन परै॥296॥
सबै कहत हरि बिछुरेरहिमन मोहि न सुहाय, उर धर धीर । <BR/>अमी पिआवै मान बिनु।बौरी बाँझ न जानैबरु विष देय, बुलाय, ब्यावर पीर ॥ 464 ॥ <BR/><BR/>मान सहित मरिबो भलो॥297॥
लखि मोहन की बंसी, बंसी जान । <BR/>बिंदु मों सिंधु समान को अचरज कासों कहै।लागत मधुर प्रथम पैहेरनहार हेरान, बेधत प्रान ॥ 465 ॥ <BR/><BR/>रहिमन अपुने आप तें॥298॥
तै चंचल चित हरि कौचूल्‍हा दीन्‍हो बार, लियौ चुराइ । <BR/>नात रह्यो सो जरि गयो।याहीं तें दुचती सीरहिमन उतरे पार, परत लखाई ॥ 466 ॥ <BR/><BR/> मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार । <BR/>इक इक साअत हमचूँ, साल हजार ॥ 467 ॥ <BR/><BR/> नव नागर पद परसी, फूलत जौन । <BR/>मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ॥ 468 ॥ <BR/><BR/> समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति । <BR/>सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति ॥ 469 ॥ <BR/><BR/> नृप जोगी भर झोंकि सब जानत, होत बयार । <BR/>भार में॥299॥संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ॥ 470 ॥ <BR/><BR/> मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन । <BR/>दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ॥ 471 ॥ <BR/><BR/> भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस । <BR/>दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस ॥ 472 ॥ <BR/><BR/>गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार । <BR/>बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार ॥ 473 ॥ <BR/><BR/> दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह । <BR/>तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह ॥ 474 ॥ <BR/><BR/> लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग । <BR/>परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग ॥ 475 ॥ <BR/><BR/> मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि । <BR/>भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि ॥ 476 ॥ <BR/><BR/> होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय । <BR/>को सुख पावत सजनी, नेह लगाय ॥ 477 ॥ <BR/><BR/> अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर । <BR/>देखन ही कों तरसे, नैन चकोर ॥ 478 ॥ <BR/><BR/> आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि । <BR/>पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ॥ 479 ॥ <BR/><BR/> पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव । <BR/>पैया परों ननदिया, फेरि कहाव ॥ 480 ॥ <BR/><BR/> या झर में घर घर में, मदन हिलोर । <BR/>पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर ॥ 481 ॥ <BR/><BR/> बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि । <BR/>हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि ॥ 482 ॥ <BR/><BR/poem>
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