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रहूँ ठाठ से / रामगोपाल 'रुद्र'

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रहूँ ठाट से? नहीं, मुझे ऐसा मन मत दो।

मैं ग़रीब हूँ; मेरी चादर की लम्बाई
उतनी नहीं कि पसरूँ तो हो जाय समाई।
आभूषण, परिधान, ग़लीचे, पलँग क़ीमती,
कोठे को क्यों तरसे, खेत-मजूर की सती?
दिखे सादगी हीन, मुझे वह अंजन मत दो!

यहाँ पसीना ही गुलाबजल बन जाता है!
माटी पर माटी का ही साबुन भाता है!
नहीं 'रूज़' का रंग, रक्‍त की है यह लाली;
ऐसे को, ओ आता! यह तितलीपन मत दो।