भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"रह-रह कर आज साँझ मन टूटे / नरेश सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेश सक्सेना |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> रह-रह कर आज साँझ …) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 12: | पंक्ति 12: | ||
प्रश्नों के अन्तहीन घेरों में | प्रश्नों के अन्तहीन घेरों में | ||
− | बँध कर | + | बँध कर भी चुप-चुप ही रह लेना |
सारे आकाश के अँधेरों को | सारे आकाश के अँधेरों को | ||
अपनी ही पलकों पर सह लेना | अपनी ही पलकों पर सह लेना |
01:47, 17 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
रह-रह कर आज साँझ मन टूटे-
काँचों पर गिरी हुई किरणों-सा बिछला है
तनिक देर को छत पर हो आओ
चाँद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है ।
प्रश्नों के अन्तहीन घेरों में
बँध कर भी चुप-चुप ही रह लेना
सारे आकाश के अँधेरों को
अपनी ही पलकों पर सह लेना
आओ, उस मौन को दिशा दे दें
जो अपने होठों पर अलग-अलग पिघला है ।
अनजाने किसी गीत की लय पर
हाथ से मुंडेरों को थपकाना
मुख टिका हथेली पर अनायास
डूब रही पलकों का झपकाना
सारा का सारा चुक जाएगा
अनदेखा करने का ऋण जितना पिछला है ।
तनिक देर को छत पर हो आओ
चाँद तुम्हारे घर के पिछवारे निकला है ।