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राग शुद्ध कल्याण / मंगलेश डबराल

(भीमसेन जोशी को सुनने के बाद)

एक मिठास जो जीवन में कम होती जा रही है
अकसर शुद्ध कल्याण में मिलती है
उसका साफ़ मीठा पानी चमकता रहता है
उसकी छोटी-बड़ी नदियाँ जगह-जगह फैली हैं
उसका ज्वार चंद्रमा को गोद में ले लेता है
उतरती हुई उसकी लहरें बहुत नीचे चली जाती हैं
पृथ्वी के गर्भजल तक
और तुम जब इस पृथ्वी की सतह पर निरर्थक डोलते हो
लकड़ी पत्थर घासफूस और कुछ टूटी-फूटी चीज़ों की तरह
तो वह तुम्हें हल्का और तरल बनाता हुआ अपने साथ ले जाता है
किसी स्थापत्य का हिस्सा बनने के लिए

अपनी कल्पना के यथार्थ में हर संगीतकार
इस राग को कई तरह से रचता आया है
जैसे बार-बार अपनी ही सुन्दरता को प्रकाशित करता हो
बारीक़ी से उसे तराशता हुआ
जब तक एक-एक स्वर की कला समूचे राग की कला न हो जाये
स्वरों के स्थापत्य में चमक उठता है एक-एक स्थापत्य स्वर
और तब बहुत प्राचीन होते हुए भी वह इतना नया लगता है
जैसे उसका जन्म पहली बार हो रहा हो
हर संगीतकार उसकी पूर्णता तक पहुँचने से पहले ही लौट आता है
दूसरी आवाज़ों के लिए उसे छोड़ता हुआ

शुद्ध कल्याण सुनते हुए तुम उसके आर-पार देख़ सकते हो
तुम्हारे अपने ही स्वर उसमें गूंजते हैं
भले ही तुमने उन्हें पहले कभी न सुना हो
और तुम उन्हें अकेले भी नहीं सुन रहे हो
कोई तुम्हारे साथ है तुम्हारे भीतर
तुम्हारा कोई अंश जो सहसा तुम्हें पहली बार दिखाई दिया है
स्वरों की एक बौछार बार-बार तुम्हें भिगो देती है
वह तुम्हारा सारा कलुष धो रही है
ऐसे ही किसी क्षण में तुम उसे गा उठते हो
क्योंकि उसमें इतनी कोमलता है
क्योंकि तुम ख़ुद उस कोमलता के बहुत पास पहुँच चुके हो
कि उसे गाये बिना नहीं रह सकते
अपनी किसी व्यथा किसी वासना में
चन्द्रमा तक अपनी आवाज़ उठाने की कोशिश करते हुए
आधी-अधूरी वह जैसी भी हो वही है जीवन की बची हुई मिठास.