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राणा दा / मृत्युंजय प्रभाकर

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(यह कविता अपने एक सीनियर कामरेड राणा बनर्जी की याद में। जिनकी अकाल मृत्यु मार्च' २००९ में हुई)


दिलो-दिमाग पर छाई धुंध से
तर-बतर
भारी है यह शाम

आईने के भीतर
छलकता समुन्दर
निस्तेज

करीने से ऊपर की ओर
सिर से चिपके केश
नही हैं इस स्नान के बाद

तुम्हारा अल्हड़
बिंदास अपनापन
एक खालीपन देगा
उम्रभर

जितने थपेडे झेले तुमने
आज़ादी से दस-ग्यारह ही कम रहे होंगे
प्रतिबिम्बित तुम हुए
उस स्याह सागर में

तुम अकेले नही हो
जिसने चुनी यह राह
इन बेलगाम वर्षों में

चक्की तो आखिर पीसती ही है
और पिसना होता है
किसी न किसी को
कई बार अबुझे ही

आहों-कराहों से इतर
आवाज़ की एक दुनिया और भी है
हुंकार की दुनिया
तुम्हारे 'रानार' की दुनिया
हम आगे भी वहीं मिलेंगे
राणा दा!