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रात एक युकलिप्ट्स / रमणिका गुप्ता

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आदमी और पशु से पहले
पेड़ होते थे
शायद उसी युग का पेड़
एक युकलिप्ट्स
रात मुझसे मिलने आया
अपनी बांहों की टहनियों से
अपनी उंगलियों के पत्तों से
वह
रात भर मुझे सहलाता रहा
उसकी
सफेदी ने मुझे चूमा
और उसकी जड़ें
मेरी कोख में उग आईं
और मैं भी एक पेड़ बन गई

धरती के नीचे नीचे
अपने ही अंदर-अंदर

रात मैं एक घाटी बन गयी
जिसमें युकलिप्ट्स की सफेदी
कतार-बद्ध खड़ी थी
अपनी हरियाली से ढंके
अपनी जड़ों से मुझे थामे
झूम रही थी
और पृथ्वी और पेड़ों के
संभोग की कहानी सुना कर
मुझे सृष्टि के रहस्य
बता रही थी

बता रही थी
पृथ्वी ने आकाश को नकार कर
पेड़ों को कैसे और क्यों वरा
बता रही थी
गगन-बिहारी और पृथ्वी-चारी का भेद

क्यों पृथ्वी ने कोख़ का सारा खजाना
लुटा दिया पेड़ों को?
बनस्पतियों को क्यों दिया
सारा सान्निध्य और
कोमलता
रंग
ठण्डक
हरियाली...?
आकाश को दी केवल दूरिां
मृगतृष्णा
चमक?
चहक लेकिन पेड़ों को ही दी...?

बता दी उसने पेड़ के समर्पण की गाथा
जो टूट गया
सूख गया
जल गया
पृथ्वी की धूल में मिल गया
पत्थर-कोयला-हीरा
बन गया
पर उसकी कोख़ से हटा नहीं
उसी में रहा
हवा में उड़ा नहीं

पृथ्वी का पुत्र और पति
दोनों रहा
पृथ्वी-जाया और पृथ्वी जयी
दोनों बना!