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रात ख़्वाबों से यूँ ही सजी रह गयी / सुरेखा कादियान ‘सृजना’

रात ख़्वाबों से यूँ ही सजी रह गयी
नींद जाने किधर पर रुकी रह गयी

मुस्कुराना सदा यूँ दगा दे गया
चीख मेरी कहीं पर दबी रह गयी

मैं हटाती रही उम्र भर ही मग़र
राह काँटों भरी थी वही रह गयी

मौत आयी मग़र कब गयी छोड़ के
ज़िन्दगी से ये फिर भी भली रह गयी

मैं सजाती रही उस चमन को सदा
खुशबुएँ पर मुझी से छुपी रह गयी

लोग आते रहे लोग जाते रहे
वो गली बिन मिरे भी भरी रह गयी

वो जिसे इश्क़ था बंदगी की तरह
क्यूँ उसे इश्क़ ही की कमी रह गयी

उम्र भर फिर उसे गुनगुनाती रही
बात इक जो कभी अनकही रह गयी