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रात दिन चैन हमे ऐ रश्क़-ए-क़मर रखते हैं / लाला माधव राम 'जौहर'

रात दिन चैन हमे ऐ रश्क़-ए-क़मर रखते हैं
शाम अवध की तो बनारस की सहर रखते हैं

भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफिल जो किया
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं

ढूँढ लेता मैं अगर और किसी जा होते
क्या कहूँ आप दिल-ए-ग़ैर में घर रखते हैं

अष्क क़ाबू में नहीं राज़ छुपाऊँ क्यूँकर
दुश्मनी मुझ से मिरे दीदा-ए-तर रखते हैं

कैसे बे-रहम हैं सय्याद इलाही तौबा
मौसम-ए-गुल में मुझे काट के पर रखते हैं

कौन हैं हम से सिवा नाज़ उठाने वाले
सामने आएँ जो दिल और जिगर रखते हैं

दिल तो क्या चीज़ है पत्थर हो तो पानी हो जाए
मेरे नाले अभी इतना तो असर रखते हैं

चार दिन के लिए दुनिया में लड़ाई कैसी
वो भी क्या लोेग हैं आपस में शरर रखते हैं

हाल-ए-दिल यार को महफ़िल में सुनाऊँ क्यूँ कर
मुद्दई कान उधर और इधर रखते हैं

जल्वा-ए-यार किसी को नज़र आता कब है
देखते हैं वही उस को जो नज़र रखते हैं

आशिक़ों पर है दिखाने को इताब ऐ ‘जौहर’
दिल में महबूब इनायत की नज़र रखते हैं