भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात बढ़ती है तो चढ़ता है जुनूँ का दरिया / विकास शर्मा 'राज़'

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:50, 25 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विकास शर्मा 'राज़' }} {{KKCatGhazal}} <poem> रात ब...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात बढ़ती है तो चढ़ता है जुनूँ का दरिया
बैन करता है ये ख़ामोश-सा बहता दरिया

तुम किसी और ही धुन में थे सो ग़र्क़ाब हुए
वरना गहरा तो नहीं है ये बदन का दरिया

मुझमें आना तो ज़रा सोच-समझ कर आना
मुझमें सहरा है बहुत और है थोड़ा दरिया

फैलती जाती हैं इस शह्र की चिकनी बाहें
देखता रहता है चुपचाप सिमटता दरिया

हम नहीं जानते सहरा में जुनूँ के आदाब
प्यास लगती है तो कह उठते हैं दरिया दरिया