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रामदुलारे की दुल्हनियाँ / धीरज श्रीवास्तव

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घर से शहर,शहर से घर को
आना जाना सीख गयी है।
रामदुलारे की दुल्हनियाँ
फोन चलाना सीख गयी है।

व्हाट्सऐप पर घड़ी घड़ी वह
नइहर में बतियाती है !
लकड़ी कंडे की अब जहमत
बिल्कुल नहीं उठाती है !
मरे खपे चूल्हे में कब तक ?
गैस जलाना सीख गयी है।

सीधी सादी गाय नहीं वह
जो केवल रम्भाती है !
अधिकारों के लिए आजकल
बिना झिझक लड़ जाती है !
सरकारी सुविधाओं का अब
लाभ उठाना सीख गयी है।

छोड़ पुरानी लीक रोज वह
राहें नयी बनाती है !
कजरी, सोहर और लचारी
फिल्मी धुन पर गाती है !
जेठ, जिठानी, सास,ननद पर
धाक जमाना सीख गई है।

बरसे सावन जेठ तपे या
माघ पूस का जाड़ा ह़ो !
या फिर घोर संकटों ने मुख
सम्मुख उसके फाड़ा हो !
बीच भँवर में फँसी नाव को
पार लगाना सीख गयी है।