Last modified on 18 जून 2017, at 16:12

रामपुर पहले सरीखा अब रामपुर नहींं रहा / बनज कुमार ’बनज’

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:12, 18 जून 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रामपुर पहले सरीखा, रामपुर अब ना रहा।
रोज़ लगता है यहाँ अब रावणों का कहकहा।।

रोज़ फाँसी पर लटकते हैं यहाँ होरी कई।
झूठ है बँटती हैं राशन की यहाँ बोरी कई।।

एक जाती दूसरी पर डालती है नित कफ़न।
खेल खेला जा रहा है मौत का अब दफ्अतन।।

हाथ ख़ाली हैं मशीने काम करती हैं यहाँ।
अब कलाई की घड़ी आराम करती है यहाँ।।

शूल बिकते हैं यहाँ अब फूल की दूकान पर।
धूल की परतें जमीं हैं ज्ञान की पहचान पर।।

गाँव की गलियाँ कभी महफूज़ थी वो दिन गए।
प्यार के चारों तरफ फैले वो सब पल-छिन गए।।

हम सभी अब सिर्फ़ पूँजी के लिए हैं नाचते।
दूसरों को लाँघने की हम विधाएँ बाँचते।।

अब नहीं तुलसी कबीरा ना यहाँ रसखान है।
भेड़िये की खाल को ओढ़े हुए इनसान हैं।।

कल पड़ोसी गाँव में फिर मजहबी दंगा हुआ।
आदमियत का वहाँ फिर ढेर सारा खूँ बहा।।