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| |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" | | |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |
| |संग्रह=अनामिका / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" | | |संग्रह=अनामिका / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |
− | }} | + | }} {{KKCatKavita}} |
− | | + | {{KKAnthologyRam}} |
− | रवि हुआ अस्त<br>
| + | [[Category:लम्बी रचना]] |
− | ज्योति के पत्र पर लिखा<br>
| + | * [[राम की शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / पृष्ठ १]] |
− | अमर रह गया राम-रावण का अपराजेय समर<br>
| + | * [[राम की शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / पृष्ठ २]] |
− | आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,<br>
| + | * [[राम की शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / पृष्ठ ३]] |
− | शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,<br>
| + | * [[राम की शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / पृष्ठ ४]] |
− | प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह<br>
| + | * [[राम की शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / पृष्ठ ५]] |
− | राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,<br>
| + | |
− | विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,<br>
| + | |
− | लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,<br>
| + | |
− | राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,<br>
| + | |
− | उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,<br>
| + | |
− | अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,<br>
| + | |
− | विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,<br>
| + | |
− | रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,<br>
| + | |
− | मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,<br>
| + | |
− | वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,<br>
| + | |
− | गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,<br>
| + | |
− | उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,<br>
| + | |
− | जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,<br>
| + | |
− | बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।<br>
| + | |
− | वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न<br>
| + | |
− | चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल<br>
| + | |
− | लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल<br>
| + | |
− | रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,<br>
| + | |
− | श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,<br>
| + | |
− | दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल<br>
| + | |
− | फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल<br>
| + | |
− | उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार<br>
| + | |
− | चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर<br>
| + | |
− | सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर<br>
| + | |
− | सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान<br>
| + | |
− | नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान<br>
| + | |
− | करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल<br>
| + | |
− | ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान<br>
| + | |
− | अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान<br>
| + | |
− | वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,<br>
| + | |
− | सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,<br>
| + | |
− | पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,<br>
| + | |
− | सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,<br>
| + | |
− | यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष<br>
| + | |
− | देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,<br>
| + | |
− | खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,<br>
| + | |
− | अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,<br>
| + | |
− | भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।<br>
| + | |
− | स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय<br>
| + | |
− | रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,<br>
| + | |
− | जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,<br>
| + | |
− | एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,<br>
| + | |
− | कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,<br>
| + | |
− | असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत<br>
| + | |
− | जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत<br>
| + | |
− | देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन<br>
| + | |
− | विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन<br>
| + | |
− | नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-<br>
| + | |
− | पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-<br>
| + | |
− | काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-<br>
| + | |
− | गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-<br>
| + | |
− | ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-<br>
| + | |
− | जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,<br>
| + | |
− | हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,<br>
| + | |
− | फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,<br>
| + | |
− | फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,<br>
| + | |
− | वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-<br>
| + | |
− | फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,<br>
| + | |
− | देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,<br>
| + | |
− | ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो<br>
| + | |
− | आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,<br>
| + | |
− | ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,<br>
| + | |
− | पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;<br>
| + | |
− | लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,<br>
| + | |
− | खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;<br>
| + | |
− | फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,<br>
| + | |
− | भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-<br>
| + | |
− | युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;<br>
| + | |
− | साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,<br>
| + | |
− | दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्<br>
| + | |
− | पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,<br>
| + | |
− | जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।<br>
| + | |
− | युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,<br>
| + | |
− | देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;<br>
| + | |
− | ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-<br>
| + | |
− | सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;<br>
| + | |
− | टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,<br>
| + | |
− | सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल<br>
| + | |
− | बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,<br>
| + | |
− | व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।<br>
| + | |
− | "ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,<br>
| + | |
− | उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,<br>
| + | |
− | हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल<br>
| + | |
− | एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,<br>
| + | |
− | शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,<br>
| + | |
− | जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,<br>
| + | |
− | तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष<br>
| + | |
− | दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,<br>
| + | |
− | शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,<br>
| + | |
− | जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव<br>
| + | |
− | वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश<br>
| + | |
− | पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।<br>
| + | |
− | रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,<br>
| + | |
− | यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार;<br>
| + | |
− | उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,<br>
| + | |
− | इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,<br>
| + | |
− | करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,<br>
| + | |
− | लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,<br>
| + | |
− | श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर<br>
| + | |
− | बोले- "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर<br>
| + | |
− | यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,<br>
| + | |
− | अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,<br>
| + | |
− | चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य,<br>
| + | |
− | मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,<br>
| + | |
− | लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार<br>
| + | |
− | करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;<br>
| + | |
− | विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,<br>
| + | |
− | झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय<br>
| + | |
− | सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।<br>
| + | |
− | बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल<br>
| + | |
− | तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,<br>
| + | |
− | यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।<br>
| + | |
− | यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।<br>
| + | |
− | यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,<br>
| + | |
− | पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल<br>
| + | |
− | क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,<br>
| + | |
− | क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?<br>
| + | |
− | तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,<br>
| + | |
− | क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"<br>
| + | |
− | कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,<br>
| + | |
− | उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,<br> | + | |
− | "हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन<br>
| + | |
− | वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर<br>
| + | |
− | भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,<br>
| + | |
− | रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,<br>
| + | |
− | है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,<br>
| + | |
− | हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,<br>
| + | |
− | हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,<br>
| + | |
− | ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,<br>
| + | |
− | अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर<br>
| + | |
− | हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,<br>
| + | |
− | फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।<br>
| + | |
− | रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,<br>
| + | |
− | तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,<br>
| + | |
− | तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!<br>
| + | |
− | रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,<br>
| + | |
− | जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,<br>
| + | |
− | बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,<br>
| + | |
− | कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,<br>
| + | |
− | सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक<br>
| + | |
− | मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | सब सभा रही निस्तब्ध<br>
| + | |
− | राम के स्तिमित नयन<br>
| + | |
− | छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,<br>
| + | |
− | जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव<br>
| + | |
− | उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,<br>
| + | |
− | ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,<br>
| + | |
− | पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,<br>
| + | |
− | बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर,<br>
| + | |
− | यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,<br>
| + | |
− | उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,<br>
| + | |
− | अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल<br>
| + | |
− | हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,<br>
| + | |
− | रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड<br>
| + | |
− | धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड<br>
| + | |
− | स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,<br>
| + | |
− | व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,<br>
| + | |
− | निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम<br>
| + | |
− | मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।<br>
| + | |
− | निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण<br>
| + | |
− | बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।<br>
| + | |
− | रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,<br>
| + | |
− | यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!<br>
| + | |
− | करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,<br>
| + | |
− | हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,<br>
| + | |
− | जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,<br>
| + | |
− | हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,<br>
| + | |
− | जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,<br>
| + | |
− | जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,<br>
| + | |
− | वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!<br>
| + | |
− | देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,<br>
| + | |
− | लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,<br>
| + | |
− | हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,<br>
| + | |
− | निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।<br>
| + | |
− | विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,<br>
| + | |
− | झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,<br>
| + | |
− | पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,<br>
| + | |
− | फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,<br>
| + | |
− | बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर,<br>
| + | |
− | विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,<br>
| + | |
− | हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,<br>
| + | |
− | आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,<br>
| + | |
− | तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।<br>
| + | |
− | रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त<br>
| + | |
− | तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,<br>
| + | |
− | शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।<br>
| + | |
− | छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!<br>
| + | |
− | तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,<br>
| + | |
− | मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।<br>
| + | |
− | मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,<br>
| + | |
− | नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।<br>
| + | |
− | सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय<br>
| + | |
− | आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"<br>
| + | |
− | कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।<br>
| + | |
− | हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,<br>
| + | |
− | देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।<br>
| + | |
− | कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन<br>
| + | |
− | खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,<br>
| + | |
− | बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित<br>
| + | |
− | "मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;<br>
| + | |
− | हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;<br>
| + | |
− | जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!<br>
| + | |
− | यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,<br>
| + | |
− | मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,<br>
| + | |
− | फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।<br>
| + | |
− | हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन<br>
| + | |
− | बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।<br>
| + | |
− | बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,<br>
| + | |
− | प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,<br>
| + | |
− | "देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर<br> | + | |
− | शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,<br>
| + | |
− | पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,<br>
| + | |
− | गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,<br>
| + | |
− | अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,<br>
| + | |
− | लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,<br>
| + | |
− | मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"<br>
| + | |
− | फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए<br>
| + | |
− | बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,<br>
| + | |
− | "चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,<br>
| + | |
− | कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,<br>
| + | |
− | जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर<br>
| + | |
− | तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"<br>
| + | |
− | अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,<br>
| + | |
− | प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।<br>
| + | |
− | राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,<br>
| + | |
− | सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।<br>
| + | |
− | निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण<br>
| + | |
− | फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।<br><br>
| + | |
− | | + | |
− | हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध<br>
| + | |
− | वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,<br>
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− | सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,<br>
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− | उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,<br>
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− | पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,<br>
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− | मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,<br>
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− | बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण<br>
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− | गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।<br><br>
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− | क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,<br>
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− | चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,<br>
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− | कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,<br>
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− | निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।<br>
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− | चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,<br>
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− | प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,<br>
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− | संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,<br>
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− | जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।<br>
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− | दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,<br>
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− | अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।<br>
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− | आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर<br>
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− | कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,<br>
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− | हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,<br>
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− | हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।<br>
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− | रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार<br>
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− | प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,<br>
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− | द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर<br>
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− | हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।<br><br>
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− | यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल<br>
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− | राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।<br>
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− | कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,<br>
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− | ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।<br>
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− | देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,<br>
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− | आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,<br>
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− | "धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,<br> | + | |
− | धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध<br>
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− | जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,<br>
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− | वह एक और मन रहा राम का जो न थका,<br>
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− | जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,<br>
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− | कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,<br>
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− | बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन<br>
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− | राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।<br><br>
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− | "यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-<br> | + | |
− | "कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।<br>
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− | दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण<br>
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− | पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"<br><br>
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− | कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,<br>
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− | ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।<br>
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− | ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन<br>
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− | ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन<br>
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− | जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,<br>
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− | काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-<br>
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− | "साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"<br>
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− | कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।<br>
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− | देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर<br>
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− | वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।<br>
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− | ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,<br>
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− | मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।<br>
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− | हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,<br>
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− | दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,<br>
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− | मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर<br>
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− | श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।<br><br>
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− | "होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"<br> | + | |
− | कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।<br><br>
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