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|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
|संग्रह=अनामिका / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
}}[[Category:लम्बी रचना]]
रवि हुआ अस्त<br>ज्योति के पत्र पर लिखा<br>अमर रह गया * [[राम-रावण का अपराजेय समर<br>आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,<br>शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,<br>प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह<br>राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,<br>विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,<br>लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,<br>राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,<br>उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,<br>अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,<br>विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,<br>रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,<br>मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,<br>वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,<br>गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,<br>उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,<br>जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।<br><br> लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,<br>बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।<br>वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न<br>चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।<br><br> प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल<br>लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल<br>रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,<br>श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,<br>दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल<br>फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल<br>उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार<br>चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।<br><br> आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर<br>सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर<br>सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान<br>नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान<br>करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।<br><br> बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल<br>ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान<br>अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान<br>वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,<br>सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,<br>पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,<br>सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,<br>यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष<br>देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।<br><br> है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,<br>खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,<br>अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,<br>भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।<br>स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय<br>रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,<br>जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,<br>एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,<br>कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,<br>असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।<br><br> ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत<br>जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत<br>देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन<br>विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन<br>नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-<br>पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-<br>काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-<br>गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-<br>ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-<br>जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।<br><br> सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,<br>हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,<br>फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,<br>फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,<br>वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-<br>फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,<br>देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,<br>ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;<br><br> फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो<br>आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,<br>ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,<br>पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;<br>लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,<br>खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;<br>फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,<br>भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।<br><br> बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-<br>युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;<br>साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,<br>दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्<br>पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,<br>जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।<br>युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,<br>देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;<br>ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-<br>सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;<br>टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,<br>सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल<br>बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,<br>व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।<br>"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,<br>उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,<br>हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल<br>एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,<br>शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,<br>जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,<br>तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष<br>दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,<br>शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,<br>जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव<br>वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश<br>पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।<br>रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,<br>यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार;<br>उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,<br>इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,<br>करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,<br>लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,<br>श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर<br>बोले- पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर<br>यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,<br>अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,<br>चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य,<br>मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,<br>लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार<br>करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;<br>विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,<br>झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।निराला"<br><br> कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय<br>सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।<br>बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल<br>तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,<br>यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।<br>यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।<br>यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,<br>पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल<br>क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,<br>क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?<br>तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,<br>क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"<br>कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,<br>उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।<br><br>/ पृष्ठ १]]* [[राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,<br>"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन<br>वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर<br>भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,<br>रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,<br>है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,<br>हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,<br>हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,<br>ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,<br>अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर<br>हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,<br>फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।<br>रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,<br>तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण।<br><br> कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,<br>तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!<br>रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,<br>जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,<br>बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,<br>कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,<br>सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक<br>मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?<br><br> सब सभा रही निस्तब्ध<br>राम के स्तिमित नयन<br>छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,<br>जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव<br>उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,<br>ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,<br>पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।<br><br> कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,<br>बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर,<br>यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,<br>उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,<br>अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल<br>हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,<br>रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड<br>धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड<br>स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,<br>व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,<br>निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम<br>मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।<br>निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण<br>बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।<br>रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,<br>यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!<br>करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,<br>हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,<br>जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,<br>हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।<br><br> शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,<br>जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,<br>जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,<br>वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!<br>देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,<br>लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,<br>हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,<br>निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।<br>विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,<br>झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,<br>पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,<br>फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "<br><br> कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,<br>बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-निराला"रघुवर,<br>/ पृष्ठ २]]विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,<br>हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,<br>आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,<br>तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।<br>रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त<br>तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,<br>शक्ति * [[राम की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।<br>छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!<br>तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,<br>मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।<br>मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,<br>नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।<br>सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय<br>आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"<br><br> खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"<br>कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।<br>हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,<br>देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।<br>कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन<br>खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,<br>बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित<br>"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;<br>हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;<br>जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!<br>यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,<br>मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "<br><br> कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,<br>फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।<br>हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन<br>बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।<br>बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,<br>प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,<br>निराला"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर<br>शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,<br>पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,<br>गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।<br><br> दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,<br>अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,<br>लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,<br>मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"<br>फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए<br>बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,<br>"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,<br>कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,<br>जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर<br>तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"<br>अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,<br>प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।<br>राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,<br>/ पृष्ठ ३]]सब चले सदय * [[राम की सोचते हुए विजय।<br>निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण<br>फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।<br><br> हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध<br>वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,<br>सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,<br>उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,<br>पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,<br>मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,<br>बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण<br>गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।<br><br> क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,<br>चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,<br>कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,<br>निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।<br>चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,<br>प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,<br>संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,<br>जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।<br>दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,<br>अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।<br>आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर<br>कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,<br>हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,<br>हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।<br>रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार<br>प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,<br>द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर<br>हँस उठा ले गई शक्ति पूजा का प्रिय इन्दीवर।<br><br> यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल<br>राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।<br>कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,<br>ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।<br>देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,<br>आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,<br>/ सूर्यकांत त्रिपाठी "धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,<br>धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध<br>जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,<br>वह एक और मन रहा राम का जो न थका,<br>जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,<br>कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,<br>बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन<br>राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।<br><br> निराला"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-<br>/ पृष्ठ ४]]"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।<br>दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण<br>पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"<br><br> कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,<br>ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।<br>ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन<br>ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन<br>जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,<br>काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-<br>"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य * [[राम!"<br>कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।<br>देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर<br>वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।<br>ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,<br>मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।<br>हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,<br>दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,<br>मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर<br>श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।<br><br> शक्ति पूजा / सूर्यकांत त्रिपाठी "होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।निराला"<br>कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।<br><br>/ पृष्ठ ५]]
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