Last modified on 14 सितम्बर 2010, at 00:24

रायपुर में मुक्तिबोध के घर जाने पर / रमेश कुंतल मेघ

सूरज का सोंधा भुना लालारुख कछुवा
बिंधा भिलाई की चिमनियों से
जलते-पकते कत्थई
हो जाएगा अभी आगे
राजनंदगाँव पर ।

पता नहीं लापता चाँद कब उगेगा
हमारे सो जाने पर ?...पर ??
जादुई महल ? मुक्तिबोध का ?
यह सब यूँ घट गया
मानों नीले बिच्छुओं की सुरंग से लिपट
काला साँप
भरी दोपहर
फन तान तन गया ।

लो, मैं आ गया
तुम्हारी दहलीज पर
गौरेया-सा दुबक कर
अनंत कालयात्रा की दहशत से
ठिठककर !
तुम्हारा अहसास (कई गुना आदमक़द)
गले मिला
शनिनील चंद्रमाओं में
नागात्मक कविताओं-सा
मचलकर ।

घर में वही
हँसमुख शान्ता भाभी,
वही चाय, वही पोहा,
वैसी ही आवभगत
मानो तुम कहीं-वहीं-यहीं हो ।

लेकिन नहीं । ...पार्टनर ।
पालिटिक्स अब मती पूछो
अब तुम्हारे घर बीड़ी । नहीं
मेरे पास माचिस...?,

महा एक अगरबत्ती जलती है ।
दिवाकर है । गिरीश है ।
सृजनकन्या उषा है ।
तुम्हारे काव्य-पुरुष के इर्द-गिर्द
दर्जनों मिथकीय बुनकर जैसे
तुम्हारे जीवंत संगी-संघाती हैं ।
अकेलापन नहीं है, ख़ामोशी है,
ख़ामोशी है, मुर्दापन नहीं है,
मुर्दापन नहीं, जवाँमर्दी है ।
रायपुर की जेठ दोपहरी में कोई
छत्तीसगढ़ी लोकगीत नहीं है ।

राजनांदगाँव में कोई भी
क्राँति गरुड़
उतरा नहीं है
हमारी रेल भी 'क्रास' पर ठहरी नहीं है ।

अँधेरे में बेहद गंदगी है चारों ओर
साफ करने एक और काबिल मेहतर नहीं है ।
क्यों नहीं, कल तलक
लोकपुरुष आया
नहीं है ?