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रास्ते जितने वफ़ा के थे, वो बाधित हो गए / हरिराज सिंह 'नूर'

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रास्ते जितने वफ़ा के थे, वो बाधित हो गए।
दूर मंज़िल हो गई, ख़ुद्दार पीड़ित हो गए।

देर से उठने की आदत जब से हमको पड़ गई,
"हम भी इस युग के नये रंगों से परिचित हो गए"।

शहर को जिन कारणों से भागते हैं सारे जन,
गाँव क्या उन कारणों से शहर वंचित हो गए?

जब से आया घर में ग़ज़लों का नया ये सिलसिला,
पूरे मन से हम भी ग़ज़लों को समर्पित हो गए।

वो घड़ी भी क्या घड़ी थी कुछ न पूछो, दोस्तों!
विरहाकुल इतने हुए, हम पथ से विचलित हो गए।

इस तरह हमने बढ़ाया जल-प्रदूषण को वहाँ,
फूल गंगा में जो डाले वो प्रवाहित हो गए।

उस दवाई ने दिखाई अपनी वो जादूगरी,
जब हुआ उन पर असर वो और मुखरित हो गए।

याद हमको आज भी है, हल्दीघाटी की व्यथा,
देश हित में वीर सारे रक्त-रंजित हो गए।

ओस की बूँदें -सी टपकी जब हमारे सामने,
तन हमारे भी नहाए जल से सिंचित हो गए।

पालिथिन की थैलियाँ जब से चलीं इस शहर में,
सब नदी-नाले, हवा-पानी प्रदूषित हो गए।

'नूर' क्या कहिए समय की चाल है या और कुछ,
जब से औरों से कटे वो हम से परिचित हो गए।

'नूर' का घर से निकलना भी बहुत दूभर हुआ,
जब से उन को खो दिया, हम ख़ुद से परिचित हो गए।