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रास आई है फिज़ा जबसे इबादतग़ाह की / विनय कुमार

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रास आई है फिज़ा जबसे इबादतग़ाह की।
राज बंदों का रहे, मर्ज़ी हुई अल्लाह की।

सलवटें ईमान की दिखती नहीं ऐलान में
धुंध में लिपटी हुई आवाज़ आलीज़ाह की।

हरम के हिजड़े अगर होते तभी तो जानते
किस गटर में गल रही है दाल शहंशाह की।

आईना अक़बर का औरंगज़ेब ने खुरचा उसे
देखता कैसे ज़फ़र सूरत बहादुरशाह की।

यह तरक्क़ी है कि है तनहाइयों की इक गुफा
यह अंधेराहै कि है काली दुआ हमराह की।

एक जैसे हैं सभी उस बर्फ से इस झाग तक
खाल है ज़म्हूरियत की रूह तानाशाह की।

बात करिए षायरों से पढ़िए ग़ज़लो की किताब
ज़ख्म हो दिल में अगर चलती नहीं ज़र्राह की।