Last modified on 7 जनवरी 2011, at 20:54

राहे-वफ़ा में जब भी कोई आदमी चले / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

SATISH SHUKLA (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:54, 7 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब' | संग्रह = }} {{KKCatGhazal}} <poem> राहे-वफ़…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


राहे-वफ़ा में जब भी कोई आदमी चले
हमराह उसके सारे जहाँ की ख़ुशी चले

छोड़ो भी दिन की बात मिलन की ये रात है
जब बात रात की है तो बस रात की चले

बुलबुल के लब पे आज हैं नग़में बहार के
सहने चमन में यूँ ही सदा नग़मगीं चले

तय्यार हूँ मैं चलने को हर पल ख़ुदा के घर
लेकर मुझे जो साथ मेरी बेख़ुदी चले

रहती है मेरे साथ सफ़र में बला की धूप
इक शब कभी तो साथ मेरे चांदनी चले

मैं जा रहा हूँ तेरा शहर छोड़ कर 'रक़ीब'
आना हो जिसको साथ मेरे वो अभी चले