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राह देखते हम / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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62
तय किया था
हमने मिलकर
फूलों -सा खिलकर,
जुदा न होंगे
भूल गए हो तुम
राह देखते हम।
63
साँस -साँस में
चन्दन की खुशबू
याद बसी तुम्हारी,
रमी है ऐसे-
जैसे तन में बसे
प्राणों की संजीवनी।
64
जीवन-रण
कटता जाए शीश
यहाँ हज़ारों बार,
आहें भी नहीं
निकली मुँह से भी
चूकते नहीं वार।
65
सांध्य गगन
या उतरा आँगन
कुसुमित यौवन,
रूप तुम्हारा
बहता छल-छल
ज्यों निर्झर चंचल
66
अधर खिले
पिया मदिर मधु
जगे जड़-चेतन,
अँगड़ाई ले
बहा मन्द पवन
सिंचित तन-मन।
67
नीलम नभ
धुँआँ पीकर मरा
साँस-साँस अटकी
हम न जागे
हरित वसुंधरा
द्रौपदी बना लूटी।