Last modified on 27 फ़रवरी 2021, at 17:50

रिश्ते बिगड़ी अर्थव्यवस्था और बनी दुनिया बाजार / सरोज मिश्र

रिश्ते बिगड़ी अर्थव्यवस्था और बनी दुनिया बाजार!
दो पैसों की खातिर हमने बेंच दिए सारे इतवार!
हाँ सतरंगी वे इतवार!
हाँ अतरंगी वे इतवार!

खुशियों का मुह सुरसा जैसा
मेरी क्षमता अंगुल भर!
एक अकेला ध्रुव तारा मैं
जिसे निहारे पूरा घर!
तो फिर शीतल रातें बेची
बेची धूप में छाया भी!
मन की माया मुफ्त लुटाई
बेची कंचन काया भी!
अक्सर दर्पण हँसकर कहता, कुछ तो बोलो हमसे यार!
बोझ ह्रदय पर लगते होंगें, ये खारे-खारे इतवार!
हाँ सतरंगी वे इतवार!
हाँ अतरंगी वे इतवार!

बड़ी हुईं बचपन की बाहें,
लगी फूटने तरुणाई!
ऊब गयी गुड्डे से गुड़िया,
मांग रही है शहनाई!
आज नहीं कल परसों कहकर,
कितना सबको समझाते!
हल्की जेब हमारी कैसे,
भारी भरकम दिखलाते!
कील गाड़ ली ख़ुद सीने में, सूनी कर दी हर दीवार!
फाड़ दिया कल नया कलेण्डर, गला घोंट मारे इतवार!
हाँ सतरंगी वे इतवार!
हाँ अतरंगी वे इतवार!

किसी पूस की रात पैर के,
पास रजाई खुल जाए!
शीत किशोरी अवसर पाकर,
पूरे तन में घुल जाए!
करवट कोशिश करती चूमूँ,
गरमाहट का गोरा गाल!
दूर कहीं से लगा डांटने,
घण्टाघर का तब घड़ियाल!
अबतक जिनसे घंटों पहले, हो जाते थे हम दो चार!
देहरी से ही लौट रहे अब, थके-थके हारे इतवार!
हाँ सतरंगी वे इतवार!
हाँ अतरंगी वे इतवार!