Last modified on 31 अक्टूबर 2009, at 19:20

रिश्ते / कविता किरण

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:20, 31 अक्टूबर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रिश्ते!
गीली लकड़ी की तरह
सुलगते रहते हैं
सारी उम्र।

कड़वा कसैला धुँआ
उगलते रहते हैं।

पर कभी भी जलकर भस्म नही होते
ख़त्म नही होते।

सताते हैं जिंदगी भर
किसी प्रेत की तरह!