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रिश्तों की दरारें / मनीष मूंदड़ा

रिश्तों में दरारें
अब साफ नजर आती है
कल तक बिना बोले मन की तकलीफ भाँप लेते थे
आज चीख़ें कहीं दब गई दरारों में
वो अपनों के बीच का सन्नाटा
अब ख़ामोशियाँ हैं दरारों में
कभी धड़कन पास होती थी एक दूसरे के
अब नफरत है दरारों में
कभी हँसते गाते खिलखिलाते शोरगुल थे
अब चुप्पी भरी पड़ी है दरारों में
कभी शाम की चाय होती थी हाथों में
अब शामों का अँधेरा बसता है दरारों में
तुम भी टूटो
मैं भी टूटूँ
आओ टूट कर मिट्टी हो
भरदें इन दरारों को...