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रिश्तों के झुनझने / कमलेश कमल

रिश्तों के झुनझुने
यूँ ही नहीं छूटते
न छूटने ही देते हैं
इनका बजते रहना
एक उपक्रम भर नहीं होता
होता है एक
आश्वासन भी
जिसको सुन
किलक उठता है
किसी कमजोर क्षण
में दुबका हुआ मन
फ़िर नहीं ढूँढता यह
ज़ज़्बात के धागे का
उलझा दूसरा सिरा
न ही देख पाता
रेहन पर रखे रिश्ते
या फिर इसके
ज़हीन और महीन जुगत
ये तो लोरी हैं
अलसाती ख़्वाबों के
जिसे सुन आती है
एक पुरसुकून नींद
इन्हें बजने ही दो!