भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रिश्तों के दलदल से कैसे निकलेंगे / शकील जमाली

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रिश्तों के दलदल से कैसे निकलेंगे
हर साज़िश के पीछे अपने निकलेंगे

चाँद सितारे गोद में आ कर बैठ गए
सोचा ये था पहली बस से निकलेंगे

सब उम्मीदों के पीछे मायूसी है
तोड़ो ये बदाम भी कड़वे निकलेंगे

मैं ने रिश्ते ताक़ पे रख कर पूछ लिया
इक छत पर कितने परनाले निकलेंगे

जाने कब ये दौड़ थमेगी साँसों की
जाने कब पैरों से जूते निकलेंगे

हर कोने से तेरी ख़ुशबू आएगी
हर संदूक में तेरे कपड़े निकलेंगे

अपने ख़ून से इतनी तो उम्मीदें है
अपने बच्चे भीड़ से आगे निकलेंगे