रुक्मिणी परिणय / पहिल सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'
करथि हृदयक भाव बाहर रूप शब्दक लैत
अखिल जगतक लोक तखनहिं कार्यरत अछि ह्वैत।
देथु उक्तिक शक्ति से उर नितय नव उन्मेष
हैत तखनहिं सरस सुन्दर हमर शुभ सन्देश।
छलहुँ सूतल सगर दिन हम निशि निकट अछि तूल,
दय न सकलहुँ अर्चनामे चाहितहुँ किछु फूल।
किन्तु वाचक बन्धु! एखनहुँ नहिं नहित उत्साह,
दूर द्वापर गेल लय चल दैत साहस साह।
भिन्न युगमे ठाढ़ छी हम भिन्न अछि संसार,
चलन तकरे हैत हमर उद्यमक आधार।
चित्र नहि किछु मन्द मानत अन्य आजुक दृष्टि,
नहि रहत बदलैत कहिया अपन गति पथ सृष्टि?
अछि जखन संसार नव वनि आगु मुह ससरैत,
रीति नीति विचार कोना एक रंग अछि ह्वैतत्र
रहल नित्य कहैत आगत कृत्य विगतक पाप,
रहल नित्य बनैत पूतक आगु बुड़िबक बाप।
हैत जे किछ वस्तु प्रस्तुत नीक वा अघलाह,
दूध पानिक भेद अपनहिं हंस जन करताह।
भावना अछि मनक केवल अर्चना नहिं आन,
कर्मयोगक पथिक दै छथि फलक दिस की ध्यान?
सुर गिरा सन धनिक जननिक लेथि जौं किछु अर्थ,
मैथिली मिथिलाक मुख प्रिय करथि कोन अनर्थ?
सरस धरती सहज गुणसौं जन्म जकरा देत,
प्राण पोषक तत्व अंकुर ओ कतय सौं लेत?
प्रकृति पुरुषक खेलसौं कय आकलित आकार,
शब्द अर्थक रंग भरिभरि निज रुचिक अनुसार।
चरित चित्र पवित्र पाठक! दैत छी उपहार,
त्याग वा अनुराग दूनू पर अहिंक अधिकार!
भारतक सुविशाल छाती सन विदर्भ महान,
भरल पूरल राज सुन्दर सुखद स्वर्ग समान।
पभू भीष्मक, सुखित जनपद, नीति अतिशय नीक,
बाघ बकरी एक तट अछि नमि रहल निर्भीक।
दुष्ट दुर्जन लेल नृपतिक तेज विष सन सीख,
नीक लोकक लेल शीतल के धरत नहिं लीख?
नगर कुंडित राजधानी यदपि भूपक धाम,
शासनक आसीन रथपर सभ लखथि सभ ठाम।
नृपक नैतिक कोप कखनहुँ नहिं कतहु छल व्यर्थ,
प्रीति तहिना त्याग वृत्तिक संगहिं त्राण समर्थ।
एक बीत न भूमि राजक लय सकै छल आन
भूप अपनहुँ नित्य राखथि चित्त उचितक ध्यान।
नीच नृप् जे करथि कालक बश सपरि संग्राम,
यशक संगहिं प्राण पाहुन तनिक प्रेतक धाम।
रोग तखनहि तन त्रिदोषक यदि विषम विनिवेश,
अर्थकृत वैषम्य जौ अछि हैत अवनत देश।
वैद्य जहिना करथि समता परक शमनक काज,
करथि शासन भूप तहिना सभ सुखक रचि राज।
कहथि जहिना, करथि तहिना देश जनहित कार्य,
तँ नृपक निर्देश सभके मुकुट सम शिर धार्य।
कार्य पद आसीन जननहिं विधि बुझै छल घूस,
नहि करै छल अन्न रक्षित सभ सफाचट मूस।
हाथ छल निष्पाप प्रहरिक सजग नित्य कृपाण,
ते धनक संग लैत नहिं छल दस्यु ककरो प्राण।
बनत बाहर हंस, भीतर नीच निर्मम काक,
एहन मूर्त्तिक लेल विधि लग नहिं छलनि जनु चाक।
गगन-चुंबन शील ककरहु यदि भवन अवदात
क्यौ न पानि चुबैत खोपड़िमे करै छल प्रात।
नहिं अलस क्यौ छल अजेगर मोड़ि सन नहिं पेट
पेट पीठ न एक ककरो नहि सुखायल घेंट।
नहिं कतहु धन हीनता, नहिं मनुज रक्तप जोंक,
औषधक बिनु नहिं मरै छल विवश असमय लोक।
रोग व्याधिन कतहु यद्यपि छल जलोदर देश,
विपुल अष्टा पदक रहितहुँ छल निरापद बेस।
शक्ति हीनक लेल नहिं छल कतहु दुर्लभ न्याय,
सुदृढ़ शासन सजग सभतरि के कतय असहाय?
जाल सर्जन जाल बनि बनि निज गरहिं संलग्न,
कपट पटकन दैत अपनहिं छल नपति तय नग्न।
नृप कुशासन रत रहथि ते निपुण शासक ख्यात,
नहिं विचारक नीति ते नृप बड़ विचारक ख्यात।
नहिं कलंकित आन केवल चान टा सकलंक,
सरल हृदयक लोक केवल नृपक कर धनु वंक।
यदि प्रयोजन सौं अधिक धन विधि बुझै छल चोर,
पल्लवित की हैत अधतरु कहल जखनहिं सोर?
झूठ आधृत नीति नहिं छल, पापसौं छल भीति,
त्याग तप सैं जतय जनतामे परस्पर प्रीति।
एक गतिपथ, एक स्वर मुख, एक राष्ट्रिय प्रेम,
शास्य शासक भेद शब्दक एक नृप नर क्षेम।
यदपि दिन गति कहथि द्वापर युगक बुध जन बात,
किन्तु भीष्मक राज मे अछि सत्य युग अवदात।
युगक निमित होथि नहिं नृप नीक वा अघलाह,
नीक अघला युग बनाबथि वस्तुतः नरनाह।
पाँच बालक पाबि नृपतिक लालसा छल छिन्न,
एक पुत्रिक किन्तु इच्छा उर सदा उùिन।
लिंग युग निर्माण मे रस लिंग युग लय अन्ध,
विश्व बुद्धिक लेल दुर्दम लिंग युग निर्बन्ध।
अनिक द्युति लव लहि अलंकृत सूर शशि नक्षत्र,
सस्य श्यामल खेत कानन पुष्प पल्लव पत्र।
शक्ति साहस बद्धि विद्या अर्थ यश संमान,
ललित कोनो वस्तु जगतक थिक जनिक अवदान।
उदधिा मथनक काल उद्भव स्वर्ण सुन्दर देह,
हरिक जे घनश्याम उर बिच अचल विद्युत रेह।
अवनि सौं जनि जे बनौलनि भवन जनकक धन्य,
पतिक संग स्वीकार कयलनि दुःख बहुबिध वन्य।
अवतरित पर पुरुष भूमिक भार हरणक लेल,
प्रकृति से की पाछु रहती सृष्टि जनिकर खेल।
भूमि गर्भक जन्म सभ दिन दुःख दीतहिं गेल,
नृपति पत्निक कोखिसौं ते जन्म भरिसक लेल।
शिशुक आनन ज्योति पसरल दुरल दीपक भास,
रविक जहिना किरण अबितहिं अलख आन प्रकाश।
स्फटिक मणि कृत भीतपर तनु ज्योति जखनहिं गेल,
प्रतिफलित सित वस्तु पर से सोन सन सभ भेल।