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रुक्मिणी परिणय / पहिल सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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नहिं नृपक धार मात्र उत्सव ह्वैत छल दिन राति,
नृत्य नाटक गीत व्यापृत स्वर्ग सुरहुक जाति।
दुन्दुभिक ध्वनि संग नभसौं विपुल बरिसल फूल,
अप्सरा सभ मुदित गाबथि गीत मंगल मूल।

अरूण पल्लव माझ तरु तरु नव कुसुम भकड़ार,
सान्ध्य रविकर रक्त गगनक माझ से उड़-हार।
मधुर मंद सुगन्ध शीतल मारुतक संचार,
भूमिनभ जनु करथि प्रस्तुत अर्चनाक प्रकार।

दिग्वधू गण केर आनन उमड़ि आयल हास,
लोक मानस मध्य हर्षक छलकि गेल प्रकाश।
विहग कलरव व्याज दिग्पति करथि यशगुणगान,
भंृग गुंजन मिष जेना वन देवता मुख तान।

भूप दम्पति निरखि शिशुमुख रूप अपरंपार,
चकित सोचथि लेल भरिसक इन्दिरा अवतार।
उर उछाहक आगु कोनो वस्तु नृपतिक तुच्छ,
चाहलक जे जखन जे किछ फिरल नहिं क्यौ छच्छ।

रुक्म (सोन) क सन विभातन जन जयन अभिराम,
निरखी निज तनयाक रखलनि रुक्मिणी नृप नाम।
अचल चक्षु चकोर जहिना राति इन्दुक रूप,
अलक आकुल लखथि तहिना तृषित आनन भूप।

धवल पक्षक विधुकला सम नित्य नूतन अंग,
नित्य नव लावण्य तहिना उदित अंगक संग।
कुंद सम सित दन्त अंकुर अरुण अधरक नेह,
विमल विदु्रम खंड पर जनु मौक्तिकक सन्देह।

चलथि हल-चल, डेग डगमग, खसथि कखनहुँ भूमि,
चट उठा उर लेथि जननी मुदित आनन चूमि।
नील नीलम रचित आङन सजल जलदक कान्ति,
चलथि डेग सवेग बाला त्वरित तड़ितक भ्रान्ति।

देखि हर शृंगार मुख छवि लाजसौं भरि जाथि,
तें दिवस नहि राति विकसित रातिये झरि जाथि।
सुरभि सुन्दर स्वच्छ मुख लखि भूपवर तनुजाक,
खिन्न अनिलक संग सरसिज शिर धुनथि निर्वाक।

खेल धूरा माटिसौं खन सखिक संग खेलाथि,
निरत कंदुक केलि भूखो बिसरि कखनहुँ जाथि।
करथि कनियाँ वरक रचनापुनि तकर उद्वाह,
अलि जनक संग गीत नादक अछि चलैत प्रवाह।

स्वच्छ नभमे रविक जहिना अछि किरण पसरैत,
पानि पर अछि बिन्दु तेलक रूप जहिना लैत।
भूप तनया के छला गुरू सूत्र जौं सिखबैत,
विमल प्रतिभा सौं पसरि छल भाव्य अपनहिं ह्वैत।

शैशवक आभास रहितहुँ यौवनक विनिवेश,
उदित जहिना होथि दिनकर हिमकरक द्युतिशेष।
सहज रक्त प्रसन्न पदतल निरखि विस्मित धाइ,
विवश पूछथि, पैर आरत के लगौलक दाइ?

लाल झकझक पैर आङुर नखक उज्ज्वल कान्ति,
तर गुलाबक फूल ऊपर कुंद कुसुमक भ्रान्ति।
गेल बढ़ि अत्यन्त उर संकोच लाजक भार,
भेल तँ जनु राज पुत्रिक मंद पद संचार।

कनक कान्ति प्रसून मृदुता, कदलि कांड उतार,
लय ललित उरुदंड आपद रचल सिरजनिहार।
निरखि नकटक अंगके नित ह्वैत पीवर पीन,
डाहसौं अछ भेल जाइत डाँड़ भरिसक क्षीण।

देह रचने विधिछला चुनि विश्वसौं उपमान,
उदर रेखा तीन दय जनु कहथि नहिं क्यौ आन।
विपुल संचित मंजुमादक तत्त्व छल अनमोल,
अंग रचनासौं बचल से वक्षपर दुइ गोल।

नाभि ह्रद नहिं बुड़त कखनहुँ हरिक लोचन जोड़,
चढ़ि त्रिवलि सोपान राखत कनक गिरि पर गोड़।
पीठ हाटक पट्ट निन्दक माझ मंजुल रेख,
कहत कड़रिक बीर कोना रूप हमरो देख?

वक्ष पर अछि हार मोतिक शुीा्र सभसौं बीस,
बहि रहल जनु होथि सुरसरि/हिमगिरिक चौदीस।
नृप कुमारिक निरखि निरुपम अरूण अतिशय ठोर,
विमन विद्रम सिन्धु से डुबि गेल तुबि तिलकोर।

भौंह अभिनव चाप प्रस्तुत लोल लोचन वाण,
बनि वशंवद रहत सभदिन चक्रपाणिक प्राण।
कच कलापक माझ आनन अछि तेना द्युति दैत,
होथि जलदक बीचसौं जनु चन्द्रमा चमकैत।

तन सरोवर, द्युति सलिल, कर कमल, लोचन मीन,
भ्रूयुगक सेमार सुन्दर, लहरि त्रवलिक तीन।
चक्रवाकक जोड़ बैसल संग माझहिं ठाम,
परम पुरुषक लेल अछि जनु दश्य बड़ अभिराम।

यौवनक अवलोकि उद्गम नृपक टूटल निम्न,
विभव रहितहुँ ककर मन नहि भय उठै अछि खिन्न।
हैत घर वर पाबि प्रमुदित कोन विधि सन्तान,
रहल बापक आगु सभदिन कष्ट कन्या दान।

अखिल भारतवर्ष भरि जे छोट बड़ राजा छला,
बूड़ि विज्ञ सुवीर कातर नीक वा अधला छला।
सभहुँ एकाएक नृपतिक उर तुला उन्मित भेला,
रहल पलरा हरिक नीचहिं आन उठि ऊपर गेला।

पहिल सर्ग समाप्त