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रुक्मिणी परिणय / पाँचम सर्ग / भाग 1 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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लाल साड़ी पहिरि प्राची दुःख तम कय दूर ऐली
कोरमे शिशु-सूर क्षितिजक मंचपर प्रत्यक्ष भेली।
नव प्रसूतिक भूमिकामे लोक मानस मोहि लछथि
सङहिं कोनो कामिनिक जनु मंगलक आभास दैछथि।

बाल दिनमणि लाल किरणक घोरि जनु सिन्दूर लेलनि
फागुनक उपलक्षमे हँसि विश्व भरिके बोरि देलनि।
राति रवि बिनु विकल नलिनिक छल मलिन अत्यन्त आनन
के कहत अवलोकि सम्प्रति क्रोधसँ मुह भेल लाल न।

रश्मिरंजित हंस हँसमुख रक्त कमलक वन हेरायल
लोक-लोचन गम्य तखनहिं जखन श्रुति-पथ शब्द आयल।
हरित तृण, हिम-विन्दु उज्ज्वल लालिमा अभिराम लेलक
नील मणिकृत भूमिपर जनु प्रकृति विद्रुम छीटि देलक।

तरुक शाखापर विहंगम बन्धु बैसल गीत गाबथि
कमल-कोष विमुक्त षट्पद देथि संगति रंग लाबथि।
नव गुलाबक मुकुल मजुल चहकि चहचह ताल दै अछि
मलय पवनक संग किसलय बड़ रुचिर अभिनय कर अछि।

सुमन पल्लव पाणिमे भरि माधवी अनवरत बुत छथि
हर्षसँ अभिभूत ककरो जानि ने समान हित छथि।
कोकिलक अत्यन्त वल्लभ अछि लहकि सहकार ऊठल
मंजरिक मधु पीबि पिक मुख सरस गीतक धार फूटल।

अछि कमल कचनार किंशुक कर्णिकारक विकच कान
बकुल बंजुल अमलतासक अछि प्रफुल्लित भेल आनन।
स्वच्छ सुन्दर काल सुखमय सभ मुदित जगतीक प्राणी
रुक्मिणी छथि किनतु व्याकुल सखिजनक सङ राजधानी।

कृष्ण मिलनक लालसा मन सोदरक लखि विघ्नबाधा
मौन राधा छथि विदर्भक दुःखसँ भय गेलि आधा।
असह आतप-क्लान्त कुसुमक तुल्य आनन गंडपाली
चित्त-शान्तिक लेल चलली वाटिका नवकुसुमशाली।

शून्य श्यामल वाम लोचन रुक्मिणिक आपात फरकल
मन्द पवनक धातसँ जनि नील कमलक पात फरकल।
कुसुम-गुच्छक भारसँ नत जाइ छथि जनि हेमलतिका
जाइ छथि जनि उतरि भूतल कौमुदी अति मन्दगतिका।

किछु सखी छथि संग जाइत जे दुखक अवसान चाहथि
प्रेमवश निज प्राणपातहुँ जे अलिक कल्याण चाहथि।
स्फटिकरत्न निबद्ध पथपर सभ जनिक छल बिम्ब निपतित
भाँति-भाँतिक कंज सुरसरि-धारमे जनि संग विकसित।

नूपुरादिक भूषणक ध्वनिसँ ध्वनित उद्यानवीथी
मन्मथक जयघोषसँ जनि अनुरणित उद्यानवीथी।
मंजु मोहक कुंज कानन, कुसुम अनगिन छल फुलायल
साफ सुन्दर व्योम तारागण सहित जनि उतरि आयल।

दिव्य द्युतिमय दृश्य सभदिन अमित हिय हुलसित करै छल
सुछवि पत्र प्रसून निकरक मीहि मन अविलम्ब लै छल।
आइ उर उद्वेग दोसर देखि लगले देह दहकल
प्रियतमक बुझि कठिन संगम विरह-वह्निक ज्वाल लहकल।

केतकीक प्रसून अनगिन बुझल मन लखि खिन्न बाला
परम निर्दय पंचबाणक लेल ढेरक ढेर भाला।
कुसुमसंकुल बकुल तरुवर समुझि विशिखागार मदनक
तुरत अपनहुँ फूल बनली जलक कणसँ सिक्त कदमक।

अग्नि-कण मकरन्द शीकर देहदाहक पवन महमह
आम्रतरुतर सुन्दरिक तन भरल ज्वालाजाल गहगह।
सीमरक अवलोकि वंकुल फूल अतिशय लाल झकझक
रक्त-रंजित शूल अगणित बुझि करै छल प्राण फकफक।

शोकहारि अशोक बुझि मन मारि तरुतर जखन गेली
ग्रह अमंगल नाम मंगल, तकर परि लगले पड़ेली।
विपुल विरहिक रक्तसँ रङि अपन फूल पलाश लेलक
भ्रान्ति से नरपाल-पुत्रिक चित्रमे भरि त्रास देलक।

छल फुलायल थल-कमल वन सुमन-रज उड़ि-उड़ि पड़ैछल
बुद्धि ज्ञानक संग दूनू आँखियो आन्हर बनै छल।
वर्णसमते मित्र चम्पा थीक ते असकूर गेली
आगि लागल देहमे जनि भागि लगले दूर गेली।

कुसुमबाण क तूण सन नवमालिकाक निकुंज देखल
धैर्यध्वसंनशील शर-सम विकच फूलक पुंज देखल।
सुखद शीतल मंडपक सन गोल वटतरुकेर छाया
छल बहैत बसात नहँु-नहुँ चित्र तखनहुँ दग्ध काया।

पंचमस्वर-निपुण कोकिल मधुर मधुमय गीत गाबय
भुजग दष्टक लेल लवणक तुल्य कलरव तीत लागय।
जखन घुरि-फिरि पाबि सकली नहि कतहु किछु शान्ति बाला
उचटि अन्तिम काल आहल तुहिन-शीतल सलिल-शाला।