अगहन दूर एखन प्रिय पाठक, अपनहुँ सभ उठि जाउ
कल कल पूर्ण नगरसँ बाहर गाम-न्घरक दिस आउ।
विश्व प्रपंचक रंगमंचपर अपन रूप बदलैत
देखब, प्रकृति नटी छथि कोना नित नव दृश्य अनैत।
मेष रविक संक्रानित करै अछि लोक सजल घट दान
थिक जुड़ शीतल पर्व पुरातन वर्षक प्रथम विहान।
थाल पालिसँ खेल चलै अछि दुपहर घरि अनिवार
बसिया भात बड़ी कय भोजन जाइछ लोक सिकार।
नमहर दिन बड़ विषम किरण लय उदित होथि नित सूर
पृथवी गर्म अबा बनि उगिलथि आगि जेना परिपूर।
पोखरि झाँखरि नदी-कूप सर सलिल सुखायल जाय
घास पात जरि गेल गेल वन तरु लतिका मुरझाय।
दुपहर दिन दिवसेश किरण अछि चमचमचम चमकैत
बूझि पड़य जनि दूर क्षितिज धरि अछि जलधार बहैत।
तृष्णाकुल मृगबन्ध समुझि जल दौड़थि हाय, अनेर
दौड़ि-दौड़ि भय श्रान्त अबै छथि तरु छायामे फेर।
श्याम घनक बिनु देह सुखायल प्रगट आरि धुर-हाड़
रोम राजि हरियर तृण सम्प्रति विरहानल जरि छार।
गाछी दूर क्षितिजमे छितरल केशकलाप बुझाइ
पड़लि अचेत जकाँ छथि धरती नग्न अनावृत आइ।
बाटक निकट तरुक छायामे पनिसालक विधान
आबि-आबि अटकैछ बटोही भूखल-प्यासल प्राण।
मानवताक प्रतीक लोक सभ दया धर्म केर धाम
दै अछि ठंढा पानि प्रेमसँ अँकुरल काँच बदाम।
कमलनाल बढ़ि गेल बहुत छल जलवृद्धिक अनुकूल
आइ सुखायल जलमे कमलक लेल समय प्रतिकूल।
कमल बन्धु जग-विदित दिवाकर छथि तन दग्ध करैत
विपतिक क्षणमे अपनो जन अछि निर्मम हाय! बनैत।
रसता कात सुदूर बाधमे वटवृक्षक घन छाह
आबि प्रतप्त पथिक जन मुखसँ विवश अबै अछि आह।
अछि गाइक जुटि जेर छाहमे बैसल पाजु करैत
गमछापर चरबाह निन्न अछि नहु-नहु पवन बहैत।
कतहु सुखायल पोखरिमे अछि किछु मटियायल पानि
लेटल घोटल लगले लागल बेङ रहल अछि फानि।
दूर दूरसँ आबि पिबै छथि विकल प्याससँ गाय
धोबिक घाट न प्यास बुझै अछि, कहबो सत्य बुझाय।
सरिताकेर विकट पाँतरमे कतहु न वृक्षक नाम
रवि कर तप्त अनल बनि हर हर बालु उड़य अविराम।
लड़ि लड़ि गर्म पवनसँ केवल परतिक माझ बगूर
बैसल अछि चरबाह छाहमे कारी झामर झूर।
बालक वृन्द उतरि पोखरिमे अछि आतुर उमकैत
उगि डुबि एक पड़ाइछ तहिना दोसर अछि पकड़ैत।
बाहर रौद विकट जल शीतला, ता नहि ऊपर हैत
जननी जनक न डाँटत जाघरि, बिसरि भोजनो जैत।
शीतल भोर, कृषक जन उठि-उठि लय हर बड़द कोदारि
कोड़थि खेत कते हर जोतथि असह रौद मन मारि।
मुरझायल मुह आबथि दुपहर बैसथि छाह अधीर
क्षितिक पुत्र तर बतर घामसँ बह रे शिशिर समीर!
दिन भरि बरसि रहल छल नभतल अनल ज्वाल अविराम
छटपटाइ छल प्राण, बहै छल तनसँ गर गर घाम।
साँझ भवनसँ बाहर शान्तिक साँस लोक अछि लैत
चन्दा मामा सत्य अपन छथि भागिनके सुख दैत।
अग्निक ज्वाल जकाँ खर कखनहुँ पछबा बहय बसात
माझ दिवस मन बूझि पड़य जनि छार होयल जरि गात।
खिड़को द्वार केबाड़ लगओने घर घरमे नर बन्न
बहराइत अछि जखन वरुणदिक रवि छथि पहुँचि प्रसन्न।
निकट साँझ बाहर भय बालकवृन्द विभाजित भेल
गुल्ली-डंटा गेन्द कबड्डी विधि करै अछि खेल।
दिन भरि दाँत घसैत बाघमे शिशु दिस ध्यान अबैत
गाइक जेर चलल घर उत्सुक गर्दम-गोल करैत।
आम्रतरुक शाखा शिशु-टिकुला अपन लगओने कोर
पवनक सहसँ झूलि झुलाबय भय जनि प्रेम-विभोर।
कखनहुँ अन्धड़ मलिन म्लेच्छ सम तुरत जाइ छै जूमि
कोर-कोरसँ छोनि-छीनि शठ पटकि दैत अछि भूमि।
कारी राति अन्हार बाघमे भुकभुक कतहु प्रकाश
भेम तकैत फिरै अछि राकस तकर विघृतमुख भास।
भ्रान्त बटोही बूझि बढ़ै अछि बसती घरक इजोत
एमहर ओमहर ह्वैत देखितहि डरसँ ओत-प्रीत।
कतहु अवनिसँ उड़ल गर्म भय बनि-बनि भाफ बसात
पूर्त्तिक लेल तुलायल तत्क्षण बनल प्रकम्पन बात।
दुर्गति भेल विपिन तरुलत्तिक ध्वस्त भेल घर-द्वार
बूझि पड़ै अछि प्रकृति देखओलनि प्रलयक लघु संहार।
निर्मल नीर बहै छथि गंगा शीतल तीतल तीर
नर-नारी अछि आबि बनओने लघु बड़ अपन कुटीर।
नहा नित्य जल पोबि करै अछि बाहर भीतर पूत
माथा हाथ करै छथि क्रन्दन यमराजक सभ दूत।
घर पठबै छथि जेठ अमामे लय पूजा संभार
वट सावित्रिक करथि अर्चना वधू विधिक अनुसार।
सुनथि पति-व्रत धर्मक महिमा सावित्रिक आख्यान
माँगथि पतिक चिरायुस यमसँ भक्ति सहित वरदान।
पावस निकट तुलायल, से बुझि गाम घरक लग पास
बीआ अछि मरुआक खसओने कय कालक विश्वास।
डबरा कूप इनार चभच्चा सरिता सरसँ आनि।
साँझ परात कृषक जन दै अछि क्यारी भरि-भरि पानि।
लागल पुरबा बहय निरन्तर पछबा भय गेल चूप
भाफ हिमालयसँ टकरायल घुरल नील घन रूप।
कुंजर कुलसम अंजन गिरि सम पवमानक चढ़ि यान
क्षणमे गेल पसरि नभ सगरो जलधर घूम समान।
उत्सुकचित्त कृषकजन ताकय, नाचय मुदित मयूर
उड़य स्वागतक लेल बलाका हर्ष हृदय परिपूर।
काननमे उन्मुख वनवेलिक अछि नव मुकुल तकैत
आँजुर भरि-भरि फूल कुटज तरु तहिना अछि उछिलैत।
धनक वियोग ब्यथास घरणिक नित्य जरै छल गात
रजनी दैत छली आश्वासन किछ किछ साँझ परात।
सलिल बिन्दु कर बढ़ा छुबय तन जखन मेघ लगलाह
सिहरि उठै अछि देह चलै अछि श्वासक उष्ण प्रवाह।
पहिलुक बुन्द खसै अछि टप टप धूरा उड़ि उड़ि जाइ
सोन्ह सुगंधित भाफ सङहिं सङ भीजल भूमि बुझाइ!
क्रमशः टघड़ि टघड़ि जल नीचाँ बहतीपर लहराइ
विन्दु विनिर्मित बुद्बुद अनगिन चढ़ल पीठपर जाइ!
विद्युत नयन गुड़ारि गरजि कय सिहनाद घनकाल
मारि विन्दुशर कहय भागि जो रे ग्रीषम चंडाल।
तोहर काज उड़ल जल अवनिक कृषिकर्मक अवसान
पावक सम पछबाक झड़कमे गेल कतेकक प्राण।
संचित जलमे माटिक तरसँ बाहर आबि फनैत
पीयर बेङ पढ़य विरुदावलि नील कंठ फुलबैत।
हर्ष बिभोर हृदय झिंगुर सभ स्वरमे स्वर मिलबैत
बूझि पड़य जनु एकतान अछि जयजयकार करैत।
‘रे कृतघ्न धनकाल! करै छे की व्यर्थक अभिमान’
छोड़ि गर्म निश्वास कहय जनु ग्रीषम खिन्न महान।
‘हमर प्रताप उड़ल जल बनि बनि भाफ, गेल नभ बीच
बनल मेघ ते तोर आइ अछि महारोर रव नीच!’
‘जकरे त्याग तपक महिमापर चमकै अछि संसार
तकरहि परुष वचन कहि एहिना बमकै अछि संसार।
यश गुण गान करै अछि एहिना बल वैभव क्षमताक
स्वार्थपरायण विश्व सनातन थिक ढोलिया जितलाक।’
कसगर वर्षा चलल निम्न पथ पानिक तरल प्रवाह
माङुर सौरा कबइ लाढ़िसँ ऊपर दिस चललाह।
कय अनुमान उजाहिक उठि उठि चलल तुरत मछबार
गाँथल माछ घुरल सभ लगले छनन मनन घर-द्वार।
आगु चिरन्तन बन्धु बड़द हर कान्ह राखि हरबाह
चलल एक-दू तीन क्रमहिं बनि हलचल दीर्घ प्रवाह।
रोपनि कतहु चलै अछि आँसुक कतहु चलय मरुआक
घानक बीआ बौग करै अछि कतहु कृषक बुझि ताक।
मुरझायल तरुलता समूहक पल्लव पत्र प्रसन्न
उपवन कानन बझि पड़ै अछि शुक शोभा सम्पन्न।
डाभी दूबि जोभाँटिक ठठरीमे आयल अँकूर
प्रातःकाल तुहिन कण मुहपर जनु उज्जर कर्पूर।
पवनक सहपर पहलमान घन आबि सड़ाक सड़ाक
भिड़ि भिड़ि ठोकय ताल ह्वैत अछि शब्द तड़ाक तड़ाक।
पाथर सन अंगक रगड़ासँ ठनका ठनकि खसैछ
जलक वृष्टि तँ ब्याज, देहसँ गर गर घाम चुबैछ।
कृप इनार नदी नद झरना छल प्रायः जलहीन
दग्घल प्यासल आबि आबि लग पथिक जाय घुरि दीन।
आजुक उच्छल रूप-रंग लखि मनमे बूझि पड़ैछ
कखनहुँ निर्धन कखनहुँ धनपति एहिना लोक बनैछ।
डारि झुकल नीचाँ दिस गाछक नमरल झबड़ल आम
पाकल पीयर लाल शिथिलमुख काँच सकत अछि स्याम।
लागल वेग बसातक की चट टूटि खसै अछि भट्ट
कृषक कुमारी दौड़ि दौड़ि जा उठा लैत छथि झट्ट
हाट बजार गली पथ उपवन सगरो आमहिं आम
गाड़िक गाड़ी पठा रहल अछि आइ नगर दिस गाम।
केरा कटहर भेल तिरस्कृत बड़हर जामु लताम
घर घरमे बस एक आमहिक लोक लैत अछि नाम।
वृष्टिक जलसँ भरल खेतमे हर्षित हर चलबैत
हलधर बन्धु करै छथि कदबा झटझट पैर घिचैत।
नभसँ तड़कि तड़कि अछि जलधर रिमझिम जल बरिसैत
पेना हाथ उठओने बिरहा छथि अलमस्त गवैत।
वामा हाथ दैत छै बीहनि दहिना कर अछि लैत
कदबामे डुबि तुरत अबैछै छप छप शब्द करैत।
पाछू दिस जन पैर बढ़ाबय हाथ दुहू नचबैत
अद्भुत एक समान खेतमे अछि गब पाँत पड़ैत।
कखनहुँ दारुण रौद, खेतमे जल बनि गेल इन्होर
ऊपर पीठ जरै अछि, नीचा युगल जरै अछि गोड़।
तइयो रोपि रहल अछि कदबामे मन मारि किसान
भेल जेना अछि बौक बसातो धन्य अहूँ भगवान।
श्याम घनक आकार क्षितिजपर सुन्दर सुभग विशाल
पहिरओलनि रवि दूर देशसँ कर पसारि मणिमाल।
विविध कुसुम निर्मित वनमालासँ समलंकृत वक्ष
वनमाली घनश्याम स्वयं जनु छथि सम्प्रति प्रत्यक्ष।
कनिये भेल क्षितिजसँ ऊपर, लगले बनल विशाल
लागल बरिसय मेघ तड़ातड़ि क्षण पलमे उत्फाल।
बड़ बड़ बुन्द खसै अछि अनधुन सरिता जलपर लोल
चानिक तासा बूझि पड़ै अछि बाजय तड़ तड़ बोल।
सभके प्रकृति दैत अछि त्राणक शक्ति अधिक वा थोड़
पैरक आहट सुनि उठबै अछि चुट्टा चट काँकोड़।
औन्हल मुह डोका घुसकय, किछ भिड़ितहिं बन्द केबाड़
खीरक पिंड जकाँ अछि जहिं तहिं अंडा केर आकार।
आयल पाबनि मधुश्रावणी वर आबथि लय भार
सुन्दर साड़ी रंग विरंगक गहना सक अनुसार।
वरक संग विधि वधू करै छथि जेहन जतय व्यवहार
नारिक भोज चलै अछि चिन्नी चूड़ा दही अचार।
सिहकय पछबा बहुत कालसँ करय कृषक अनुमान
हिमवानक हिम गलत, चलत घनपटलिक वृष्टि महान।
साओन भादव मास भयंकर नखत पुक्ख असरेस
कृषकक चित्त बनओलक भालरि बाढ़िक त्रास विशेष।
पसरल भाफ निकट नभ तलमे धूमिल रवि शशि भास
गुम सुम पवन, दिशादल संगहि अन्हरायल आकाश।
उत्कट गुमकी, की घर बाहर सभतरि विकट गुमार।
पंखा हाथ नचै अछि तैयी घामक देह टघार।
भेला भानु अदृश्य, गेल दिन दूर समुद्रक पार
पावस नृपक जलद भट कयलक नभ तलपर अधिकार।
अन्ध तमसमे मग्न धरातल लगातार जलवृष्टि
अपन-अपन थल निश्चल बैसल चूप चाप अछि सृष्टि।
कखनहुँ बरसि रहल अछि अविचल मेघ झमाझम वारि
विन्दुक शर चलबैत चलै छै कखनहुँ झाँट बिहारि।
कखनहुँ इन्द्र बिगड़ि जनु अपनहिं उझलि रहल छथि पानि
विद्युत नयन उघारि तकै छथि की नीचा नहि जानि।
वर्षा भेल विपुल, हिमसरिता सभ चलली उघियाय
बाढ़िक पानि निरन्तर ऊपर बढ़ल चतुर्दिस जाय।
देलक चानी पीटि, रहल नहि ककरो किछ सिरखार
बाधक कोनो वृक्ष प्रलयजल महाकाल सम ठाढ़।
बिजुलिक वेग, घनक लय गर्जन, शक्ति प्रकम्पन केर
प्रलयक भूख भयंकर सरिता चलली करय अन्हेर।
तरल तरंगक एक ठोर नभ दोसर ठोर पताल
दौड़ल व्यग्र जेना मुह बओने भूत प्रेत बेताल।
धारक कूल किनारक कोनो नहि थल रहल चिन्हार
काल्हुक बाघ बोन घर आङन आजुक पारावार।
लाखक लाख तरंग सनकि जनु जाइत अछि उछिलैत
अभरल कोनो वस्तु, तुरत अछि छौ छौ हाथ फनैत।
केचुलिक जाक तरंगक तरिपर चढ़ि चढ़ि सभ चललाह
आबि न सकता जन्मभूमि पुनि पहुँचि वरुण घर आह!
चुट्टी भासक चढ़ल जाकपर बनल गेन्द सन गोल
देखक लेल अहा! छथि जाइत जलनिधि जलकल्लोल।
लगले लागल लहरि सहस्रक धक्का धौल सहैत
उगि डुबि बाँस बरसि जल झरझर अछि जनु कानि कहैत।
हिमवानक थिक क्रान्ति भाइ हौ! समतल अवनि बुझाइ
उँचगर नमगर गेल कते बहि हौ! हमहुँ चल जाइ।
डूबल खेत पथार, गेल बहि सकल प्रकारक बालि
मालक घास पात भेल दुर्लभ, सकत कोन विधि पालि।
पेटक प्रश्न तुलायल संगहि शक्ति श्रमक अवसान
माथा हाथ तकै अछि टकटक प्रकृतिक कोप किसान।
तीरक तरु सरितासँ पूछथि, कहू तरंगिणि दाइ!
बाधक बाघ सफा कय दौड़लि कतय अहाँ चल जाइ?
विश्वविभूति किसानक दुखपर किये न दै छी ध्यान?
की संहारक हेतु पठओने छथि उन्नत हिमवान?
जीवन रूप स्वयं हम तरुवर! नहि हानिक दिस ध्यान
तेहने माता प्रकृति बनओलनि छी आन्हर गतिमान।
बन्धु प्रवर! हम करी असलमे बड़ जगतक उपकार
उर्वर शक्ति विहीन हैत नहि मरुभूमिक अवतार।
धरणीतलमे वस्तु मात्र अछि गुण अवगुण आधार
एक पीठ यदि ज्योति झकाझक दोसर पीठ अन्हार।
एक कूल यदि सृजन चलै अछि दोसर तट संहार
अधला नीकक बीच बहै अछि सभ दिन ई संसार।