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रुक्मिणी परिणय / सातम सर्ग / भाग 2 / बबुआजी झा 'अज्ञात'

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अशुभ नियतिवश विफल करब हम प्राण-विसर्जन
लोन अहँक मुख-विमलचन्द्रमे हैत हमर मन।
प्राण वायु जा बहत सदा अपनेक भवनमे
क्षितिक संग आकाश रहत पुनि घर-आङन मे।

दीपक बीती बीच शिखा बनि अग्नि विराजत
रहत पाछु की हेतु सलिल सरवरमे राजत।
जाधरि नहि कय कृपा अहाँ हमर अपनायब
ताधरि हम तनु त्याग करक रखतहि क्रम जायब।

सरिता सतत बहैछ, बहब की रोकय कहियो?
सिन्धु निकट की दूर कहाँ ओ सोचय कहियो?
जनम निरन्तर लेब, करब पुनि कठिन तपस्या।
करहि पड़त यदुनाथ, समाहित हमर समस्या।

मोह मन्त्र सम समाचार घनश्याम सुनै छथि
अश्रु नयन मन मुग्ध जकाँ किछु काल रहै छथि।
दैन्य दूर, भू्र, तनल, तुलायल लोचन लाली
वारिद ध्वनि गंभीर तखन बजला वनमाली।

विप्र, हमर नृप नीच जते जुटि द्वेष करै अछि
बाढ़िक चुट्टी जेना गोल बनि सिन्धु चलै अछि।
छी जनैत, छथि नीति तकर रुक्मी अपनौने
निज कर्मक परिणाम रहत की क्यो बिनु पौने?

सभहक कय अभिमान-दमन हरि आनब बाला
बहा देब हम समर भूमिमे रक्तक नाला।
डाभ जकाँ मुड़ काटि-काटि हम पाटि देब रण
अछि सारंगक संग हाथमे चक्र सुदर्शन।

रुक्मिणीक गुणरूप अलौकिक सुनि-सुनि तर्षित
अवसर उचित तकैत छलहुँ हम चिर आकर्षित।
कते राति उरविद्ध जकाँ बिनु निन्दक बीतल
मणि-प्रदीप की अछि जनैत ओ शयन महीतल।

बाल-विधुक लखि बिम्ब साँझमे शोण समुज्ज्वल
छी प्रसन्न हम ह्वैत समुझि श्यामा-मुख मंडल।
असित अंक अवलोकि मयंकक ज्ञान ह्वैत अछि
भय झमान हम छी खसैत, तम भान ह्वैत अछि।

महामलिन घन आबि पसारथु कतबो माया
रहि सकैत छथि भिन्न कीना रविसँ छवि छाया?
भूपति-सुत बनताह वृथा परिणय पथ बाधक
की ककरो भय सकत यत्न अभिमत फल साधक?

सहज प्रेमसँ भूप-सुता वर अपन चुनै छथि
राजकुमारक काज लोक अघलाह बुझै छथि
कय विरोध पुनि हमर द्वेषवश हैत सफल के?
सफल ह्वैत अछि प्रकृति कोप शरविद्व विकल के?

चकित विदर्भक लोक-दृश्य लोचन भरि देखथु
भूतलगत नव चन्द्र चन्द्रिका मिलन निरेखथु।
रगड़ि काठसँ यथा यज्ञ जन हुतवह ज्वाला
शत्रुक दल संहारि करब करगत हम बाला।

उद्वाहक तिथि बूझि बजा दारुकसँ केशव
जाउ, त्वरित रथ लाउ’’ कहल ‘‘आयुध अछि जे सभ’’।
द्विज पुंगव चढ़लाह प्रथम समुपागत स्यन्दन
देखि सकल विधि सज्ज तखन अपनहुँ यदुनन्दन।

द्विज दारुक समवेत चक्रधर राजथि रथपर
गुरु मातलि युत जेना कुलिशकर होथि पुरन्दर।
मुख-मंडल गम्भीर, हृदय अछि साहस अच्छल
मौन जलद जलपूर्ण बरसि जनु देत कोनो पल।

स्वयं समागत छली आगुमे ठाढ़ि कुमारी
फड़कि उठल कर दहिन हरिक शुभ सूचक भारी।
अछि बसात अनुकूल, कहय जनु चल चल सत्वर
सूतक इंगित पाबि तुरग बढ़ि देल तदुत्तर।

रथक चक्र पथजनक आँखिमे निश्चल लागय
कोसक कोस करैत पार पथ क्षण-पल लागय
तीव्र वेगसँ तरल तुरंगम रथ लय धाबय
अद्भुत, कातक दृश्य वस्तु पाछ दिस भागय।

आहत रज रसताक चढ़त शिर उड़ि-उड़ि ऊपर
रथ तावत अछि दूर, खसय पुनि घुरि-फिरि भूपर।
कय अनीति खल जेना युक्तिसँ जीति जाइ अछि।
सरल शान्त जन जेना विवश भय छटपटाइ अछि।

गाम-घरक जा लोक शब्द सुनि उन्मुख देखथि
ता रथ दृकपथ-धूर, घरि टा सम्मुख देखथि।
घरर घरर सुनि शब्द सघन घन गर्जन आँकय
अतिशय हर्ष-विभोर मोर-गण वनमे नाचय।

द्वारवतिक सभलोक परस्पर व्यग्र पुछै छथि
उद्धवसँ सभ बात जेना जे साफ बुझै छथि।
कुंडिनपुर घनश्याम हमर एकाकी गेला
प्रमुख शूर जन संग राम क्षण चिन्तित भेला।

कयलनि हृदय विचार कलह निश्चिय अछि भावी
चलव वाहिनिक संग तुरत डंका बजबावी।
सेना सजि अविलम्ब हलायुध पथ अपनौलनि
कुंडितपुर पहुँचैत हरिक जा स्यन्दन पौलनि।

निकसि अंकसँ श्याम कतय जाइत छथि बाहर
पहुँचलाह सस्नेह जेना सेना-मिय सागर।
पुरबाहर रथ त्यागि छाहमे कृष्ण उतरला
सैनिक बन्धु समेत ततय किछ काल ठहरला।

केशवसँ कहि विप्र गेला लगले नगरीमे
रक्मिणीक अनुमानि दाह-दुख अपना जीमे।

चिन्तातुर अवनीश-सुता द्विजबाट तकै छथि
बैसथि, उठथि अनेक, जाथि घर घूरि अबै छथि।
कहथि, कखन द्विजदेव हमर लय प्राण अबै छथि
जलनिधि-निपतित जनक कखन जलयान अबै छथि।

सोचथि कखनहुँ, विप्र एखन घरि नहि आयल छथि
गिरि कानन पथ भ्रान्त कतहु को भीतियायल छथि?
अवगुण कोनो सोचि हमर हरि की नहि अयला?
विफलमनोरथ कतहु लाजसँ द्विज रहि गेला।

भाङ पीबि जनु सदय सदाशिव विमत भेल छथि
आशुतोष निज विरुद आइतें बिसरिगेल छथि।
सतीशिरोमणि शिवे, अहूँ नहि दुख बुझैत छी
दिशा अन्ध अनुगामिनीक नहि ज्योति दैत छी।

बाजथि पुनि उद्विग्न, हमर के श्रोता आहक?
नहि जनैत छी, अन्त कोना दारुण दुख-दाहक?
मौन मुग्ध क्षण रहथि होथि पुनि हलचल कोना?
ससरि खसल अछि जेना हाथ सँ रंकक सोना।

विविध विचारक चक्रवातमे चित उड़ै अछि
औनाइत अछि प्राण कोनो नहि युक्ति फुरै अछि।
क्षण पल कल्प समान बिताबथि व्याकुल बाला
मुरझायल मुख-कान्ति पड़ल जनु पंकज पाला।

आनन दीप्त प्रसन्न तुरत वर ब्राह्मण अयला
तृषित चातकिक लेल जेना जल लय घन अयला।

चिर जीवथु विख्यात विदर्भक राजकुमारी
पुर बाहर छथि आबि तुलायल कृष्ण मुरारी।
त्यागथु चिन्ता चन्द्रमुखी, सभ यत्न सफल अछि
कहथि विप्र, हे पुत्रि! भविष्यक क्षण उज्ज्वल अछि।

भूप-सुता-मुख कमल द्विजक मुनि उक्ति फुलायल
जनु जरैत कृषि पाबि सलिल लगले हरियायल।
छलकि गेल जल नयन हर्षसँ गद्गद वाणी
दय आसन सप्रेम कहथि शिर-संगत पाणी।

हे द्विज कुल शृंगार, अहाँ जीवनदाता छी
अतल पंकमे मग्न जनक अविकल त्राता छी।
कयल जेहन उपकार हमर करुणामय, अपने
तकर तुल्य को देब, भेटै अछि नहि किछ तकने।

जीवन भरि हम उरिण अहाँसँ भय न सकै छी
कोनो प्रति उपकार अहाँ केर काय न सकै छी।
क्यो ककरो उपकार करै अछि बिपतिक क्षणमे
रखता से दिन दूर अहाँसँ विधि जीवनमे।

कानन बीच निवास चिरन्तन तप अपनौलनि
ज्ञानक दिव्य प्रकाश विश्वमे जे चमकौलनि।
त्यागक मूर्त्ति महान, विप्रसे वन्द्य न कोना?
ज नहि जगत कृतघ्न विनिन्दित ब्राह्मण कोना?

बजला द्विज, घनश्याम थिका निश्चय नारायण
रमा थिकहुँ पुनि अहाँ हुनक उर प्रीति-परायण।
दुहुक अनुग्रह पाबि वन्य हम की नहि पौलहु
निहत शोक सन्ताप लोक-परलोक बनौलहुँ।

यातायातक सभ कथा कृष्णक प्रेम ललाम
कहि संतोषक बात सभ विप्र गेला निज धाम।

सातम सर्ग समाप्त