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रूकमनी / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

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चैदह बरस के विहैली रुकमनी,
पंदरबे बरस में विधवा होय गेलै।
पैंतालिस के उमर में मरी गेलै,
आय चैपाल में ओकरे चर्चा छै,
अच्छा होलै बेचारी तरी गेलै।
तीस साल घसीटलकै जिनगी,
बिना विहान वाला अन्हरिया रातोॅ के दुख।
आय नैहर-ससुराल दुनो केॅ हल्का करी गेलै।
सुंदर, हॅंसमुख, मिलनसार, समझदार छेलै।
बिना दरमाहा दुनाॅे घरोॅ के चाकरी करै छेलै।
जिनगी में रोजे दुनो हाथोॅ सें डाँटे तेॅ बटोरलकै।
कंधा पर रोजे अपमाने ढोलकै।
फटलोॅ नुंगा में बढ़िया दिन आवै के सपना देखलकै।
मौका मिलला पर शीशा में अपनोॅ चेहरा देखलकै,
खुशी में जिंदा होला के एहसास करलकै।
महिना में बीस दिन उपास,
बांकी दिन बचलोॅ खाना के केनोॅ के खैलकै।
कखनु सुहागिन सिनी भौजी के निहारै।
कखनु ठाकुर कुलोॅ में आपनोॅ जनम केॅ धिक्कारै।
बदरंग जिनगी से परेशान होय केॅ,
रोजे मरै के दुआ माँगै छेलै।
आय भगवान दरवित होय गेलै।
पर्व-त्योहार, वियाह-व्यवहार में,
पूरे गाँव मगन छै।
सुख-दुख, कोलाहल, दुनियादारी में,
रुकमनी केकरौह याद नय छै।