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रेत-सा रिसता अन्धेरा / राजेन्द्र गौतम

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उड़ गईं पगडण्डियों से
ख़ुशबुएँ सब आहटों की ।

साँझ के मैले पगों में
कील-सी चुप्पी गड़ी है
अनमनी-सी मौनलीना
यह अरण्यानी खड़ी है
मुड़ सिवानों से गई हैं
धेनुएँ सब आहटों की ।

रिक्तता की मुट्ठियों से
रेत-सा रिसता अन्धेरा
चन्द टूटे पर समेटे
बिसुरता उजड़ा बसेरा
नदी-तन पर सरसरातीं
केंचुलें अब आहटों की ।

मंत्र-प्रेरित हवाओं ने
भूमिका दी बाँध छल की
रही लय-यात्रा अधूरी
किन्नरों, गंधर्व-दल की
सो गई हैं दिगधरों पर
वेणुएँ सब आहटों की ।